शुक्रवार, 8 जून 2018

माधव दास उर्फ वीर बंदा बैरागी

माधव दास उर्फ बंदा बैरागी


बन्दा बैरागी के बेटे को मारकर मुँह में ठूस दिया फिर भी नही बने मुसलमान, जानिए इतिहास...

*भारतवासी आज जो चैन कि श्वास ले रहे है और स्वतंत्रता में जी रहे है वे हमारे देश के वीर सपूतों, महापुरुषों के बलिदान के कारण ही संभव हुआ है उसमे एक महापुरुष थे बन्दा बैरागी। जिहोंने अनेक अत्याचार सहकर भी संस्कृति को जीवित रखा आज उनके बलिदान दिवस है लेकिन देशवासी भुल गये ।
*बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के राजौरी क्षेत्र में विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 को हुआ था। वह राजपूतों के (मिन्हास) भारद्वाज गोत्र से सम्बन्धित थे और उनका वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव था। इनके पिता का नाम रामदेव मिन्हास था।
Kill the son of Banda Bairaghi in the mouth,
 but still not made the Muslim, know history ...

लक्ष्मणदास युवावस्था में शिकार खेलते समय उन्होंने एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे।
इसी दौरान गुरु गोविन्द सिंह जी माधोदास कि कुटिया में आये। उनके चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास से वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त इस्लामिक आतंक से जूझने को कहा। इस भेंट से माधोदास का जीवन बदल गया। गुरुजी ने उसे बन्दा बहादुर नाम दिया। फिर पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा। बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब कि ओर चल दिये। उन्होंने सबसे पहले श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी।
*बन्दासिंह को पंजाब पहुँचने में लगभग चार माह लग गये।बन्दा सिंह महाराष्ट्र से राजस्थान होते हुए नारनौल,हिसार और पानीपत पहुंचे,और पत्र भेजकर पंजाब के सभी सिक्खों से सहयोग माँगा। सभी शिक्खो में यह प्रचार हो गया कि गुरु जी ने बन्दा को उनका जत्थेदार यानी सेनानायक बनाकर भेजा है। बंदा के नेतृत्व में वीर राजपूतो ने पंजाब के किसानो विशेषकर जाटों को अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया,उससे पहले जाट खेती बाड़ी किया करते थे और मुस्लिम जमींदार इनका खूब शोषण करते थे देखते ही देखते सेना गठित हो गयी।
*इसके बाद बंदा सिंह का मुगल सत्ता और पंजाब हरियाणा के मुस्लिम जमींदारों पर जोरदार हमला शुरू हो गया।
सबसे पहले कैथल के पास मुगल कोषागार लूटकर सेना में बाँट दिया गया,उसके बाद समाना, कुंजुपुरा,सढ़ौरा के मुस्लिम जमींदारों को धूल में मिला दिया।
*बन्दा ने पहला फरमान यह जारी किये कि जागीरदारी व्यवस्था का खात्मा करके सारी भूमि का मालिक खेतिहर किसानों को बना दिया जाए।
*लगातार बंदा सिंह कि विजय यात्रा से मुगल सत्ता कांप उठी और लगने लगा कि भारत से मुस्लिम शासन को बंदा सिंह उखाड़ फेकेंगे। अब मुगलों ने सिखों के बीच ही फूट डालने कि नीति पर काम किया,उसके विरुद्ध अफवाह उड़ाई गई कि बंदा सिंह गुरु बनना चाहता है और वो सिख पंथ कि शिक्षाओं का पालन नहीं करता। खुद गुरु गोविन्द सिंह जी कि दूसरी पत्नी माता सुंदरी जो कि मुगलो के संरक्षण/नजरबन्दी में दिल्ली में ही रह रही थी, से भी बंदा सिंह के विरुद्ध शिकायते कि गई ।माता सुंदरी ने बन्दा सिंह से रक्तपात बन्द करने को कहा जिसे बन्दा सिंह ने ठुकरा दिया।
*जिसका परिणाम यह हुआ कि ज्यादातर सिख सेना ने उनका साथ छोड़ दिया जिससे उनकी ताकत कमजोर हो गयी तब बंदा सिंह ने मुगलों का सामना करने के लिए छोटी जातियों और ब्राह्मणों को भी सैन्य प्रशिक्षण दिया।
*1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फर्रुखसियर की शाही फौज ने अब्दुल समद खाँ के नेतृत्व में उसे गुरुदासपुर जिले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा। पर मुगल सेना अभी भी बन्दा सिंह से डरी हुई थी।
*अब माता सुंदरी के प्रभाव में बाबा विनोद सिंह ने बन्दा सिंह का विरोध किया और अपने सैंकड़ो समर्थको के साथ किला छोड़कर चले गए,
मुगलो से समझोते और षड्यंत्र के कारण विनोद सिंह और उसके 500 समर्थको को निकल जाने का सुरक्षित रास्ता दिया गया।
अब किले में विनोद सिंह के पुत्र बाबा कहन सिंह किसी रणनीति से रुक गए इससे बन्दा सिंह कि सिक्ख सेना कि शक्ति अत्यधिक कम हो गयी।
*खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उसने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया।कुछ साक्ष्य दावा करते हैं कि गुरु गोविन्द सिंह जी कि माता गूजरी और दो साहबजादो को धोखे से पकड़वाने वाले गंगू कश्मीरी ब्राह्मण रसोइये के पुत्र राज कौल ने बन्दा सिंह को धोखे से किले से बाहर आने को राजी किया।
*मुगलों ने गुरदास नंगल के किले में रहने वाले 40 हजार से अधिक बेगुनाह मर्द, औरतों और बच्चों की निर्मम हत्या कर दी।
*मुगल सम्राट के आदेश पर पंजाब के गर्वनर अब्दुल समन्द खां ने अपने पुत्र जाकरिया खां और 21 हजार सशस्त्र सैनिकों कि निगरानी में बाबा बन्दा बहादुर को दिल्ली भेजा। बन्दा को एक पिंजरे में बंद किया गया था और उनके गले और हाथ-पांव कि जंजीरों को इस पिंजरे के चारो ओर नंगी तलवारें लिए मुगल सेनापतियों ने थाम रखा था। इस जुलुस में 101 बैलगाड़ियों पर सात हजार सिखों के कटे हुए सिर रखे हुए थे जबकि 11 सौ सिख बन्दा के सैनिक कैदियों के रुप में इस जुलूस में शामिल थे।
*युद्ध में वीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले कि नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा।
*मुगल इतिहासकार मिर्जा मोहम्मद हर्सी ने अपनी पुस्तक इबरतनामा में लिखा है कि हर शुक्रवार को नमाज के बाद 101 कैदियों को जत्थों के रुप में दिल्ली कि कोतवाली के बाहर कत्लगाह के मैदान में लाया जाता था। काजी उन्हें इस्लाम कबूल करने या हत्या का फतवा सुनाते। इसके बाद उन्हें जल्लाद तलवारों से निर्ममतापूर्वक कत्ल कर देते। यह सिलसिला डेढ़ महीने तक चलता रहा। अपने सहयोगियों कि हत्याओं को देखने के लिए बन्दा को एक पिंजरे में बंद करके कत्लगाह तक लाया जाता ताकि वह अपनी आंखों से इस दर्दनाक दृश्य को देख सकें।
*बादशाह के आदेश पर तीन महीने तक बंदा और उसके 27 सेनापतियों को लालकिला में कैद रखा गया। इस्लाम कबूल करवाने के लिए कई हथकंडे का इस्तेमाल किया गया। जब सभी प्रयास विफल रहे तो जून माह में बन्दा कि आंखों के सामने उसके एक-एक सेनापति कि हत्या की जाने लगी। जब यह प्रयास भी विफल रहा तो बन्दा बहादुर को पिंजरे में बंद करके महरौली ले जाया गया। काजी ने इस्लाम कबूल करने का फतवा जारी किया जिसे बन्दा ने ठुकरा दिया।
*बन्दा के मनोबल को तोड़ने के लिए उनके चार वर्षीय अबोध पुत्र अजय सिंह को उसके पास लाया गया और काजी ने बन्दा को निर्देश दिया कि वह अपने पुत्र को अपने हाथों से हत्या करे। जब बन्दा इसके लिए तैयार नहीं हुआ तो जल्लादों ने इस अबोध बालक का एक-एक अंग निर्ममतापूर्वक बन्दा कि आंखों के सामने काट डाला। इस मासूम के धड़कते हुए दिल को सीना चीरकर बाहर निकाला गया और बन्दा के मुंह में जबरन ठूंस दिया गया। वीर बन्दा तब भी निर्विकार और शांत बने रहे।
*अगले दिन जल्लाद ने उनकी दोनों आंखों को तलवार से बाहर निकाल दिया। जब बन्दा टस से मस न हुआ तो उनका एक-एक अंग हर रोज काटा जाने लगा। अंत में उनका सिर काट कर उनकी हत्या कर दी गई। बन्दा न तो गिड़गिड़ाये और न उन्होंने चीख पुकार मचाई। मुगलों कि हर प्रताड़ना और जुल्म का उसने शांति से सामना किया और धर्म कि रक्षा के लिए बलिदान हो गया।
*देश और धर्म के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने और इतनी यातनाएं सहन करने के बाद प्राणों कि आहुति दे दी लेकिन न धर्म बदला और नही अन्याय के सामने कभी झुके। इन वीर महापुरुषों को आज हिंदुस्तानी भूल रहे है और देश को तोड़ने में सहायक हीरो-हीरोइन, क्रिकेटरों का जन्म दिन याद होता है लेकिन आज हम जिनकी वजह से स्वतंत्र है उनका बलिदान दिवस याद नही कितना दुर्भाग्य की बात है ।
*इतिहास से हिन्दू आज सबक नही लेगा, संघटित होकर कार्य नही करेगा और हिंदी राष्ट्र कि स्थापना नही होगी तो फिर से विदेशी ताकते हावी होगी और हमें प्रताड़ित करेंगी ।

बुधवार, 29 मार्च 2017

परम पूज्य डॉ केशवराव बलीराम हेडगेवार जी की जन्मतिथि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पर

परम पूज्य डॉ केशवराव बलीराम हेडगेवार जी की जन्मतिथि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पर कोटी-कोटी नमन

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक थे डॉ. केशव बळीराम हेडगेवार। संघ विश्वविख्यात हो गया है, अपनी अद्वितीय संघटनशैली के कारण। उसके साथ ही उसके संस्थापक डॉ. हेडगेवार का भी नाम विश्वविख्यात हुआ है। कम से कम 50 देशों में संघ का कार्य प्रचलित है

अभिजात देशभक्त
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा डॉक्टर जी का जन्मदिन है। अंग्रेजी पंचांग के अनुसार तारीख थी 1 अप्रेल 1889। बाल हेडगेवार अभिजात देशभक्त था। 9-10 साल की आयु वैसी क्या होती है। किन्तु उस आयु में भी केशव हेडगेवार की सोच और मानसिकता कुछ और ही थी। वह प्राथमिक तीसरी कक्षा का विद्यार्थी था। इंग्लैंड की रानी, जो हिंदुस्थान की भी साम्राज्ञी हुआ करती थी, व्हिक्टोरिया के राज्यारोहण को साठ वर्ष पूरे हुये थे। उस उपलक्ष्य में इंग्लैंड में तथा जहाँ जहाँ इंग्लैंड का साम्राज्य था वहाँ वहाँ उस राज्यारोहण का हीरक महोत्सव आयोजित किया गया था। भारत में भी वह मनाया गया। उस के निमित्त प्रत्येक स्कूल में मिठाई बाँटी गयी। केशव हेडगेवार को भी वह मिली। किन्तु केशव ने उसका भक्षण नहीं किया। कूडादान में उसे फेंक दिया। कारण एक विदेशी आक्रान्ता शासन की पुरोधा के उत्सव का वह प्रतीक था।

वन्दे मातरम् प्रकरण
कैसा वर्णन करे इस अबोध बालक के सोच का। मुझे लगता है कि यह अबोध या आकस्मिक प्रतिक्रिया नहीं थी। उसके पीछे एक विशेष सोच थी, जिसका प्रकटीकरण फिर बारह वर्षों के बाद हुआ। केशव हेडगेवार मॅट्रिक के वर्ग में यानी उस समय के 11 वी में पढ रहा था। एक शाला निरीक्षक (School Inspector) उनके स्कूल को देखने के लिये आनेवाला था। मुख्याध्यापक ने सब विद्यार्थिओं को उसकी सूचना दी। और ठीक ढंगसे, अच्छे कपडे पहन कर अनुशासन से बर्ताव करने की हिदायत दी। किन्तु केशव हेडगेवार के दिमाग में दूसरी ही योजना बनी। उन्होंने अपने वर्ग के सब विद्यार्थियों को इकठ्ठा किया और उनको मनवा लिया कि ‘वन्दे मातरम्’ की उद्घोषणा से उस शिक्षा अधिकारी का स्वागत करेंगे। वह साल था 1908। 1905 में उस समय के अंग्रेज व्हाईसरॉय लॉर्ड कर्झन ने बंगाल प्रान्त का विभाजन किया था। उसके खिलाफ भारत की सारी देशभक्त जनता इकठ्ठा हो गई थी। इस विभाजन विरोधी आंदोलन का मंत्र था ‘वन्दे मातरम्’। उस मंत्र के प्रभाव से सम्पूर्ण देश उत्तेजित था। अंग्रेज सरकारने ‘वन्दे मातरम्’ की उद्घोषणा पर पाबंदी लगाई थी।

विद्यालय से निष्कासित
विद्यालय के मुख्याध्यापक के साथ निरीक्षक महोदय केशव के वर्ग में जब आये तब सम्पूर्ण वर्ग ने खडे होकर ‘वन्दे मातरम्’ की जोरदार उद्घोषणा कर उनका स्वागत किया। निरीक्षक महोदय आग बबूला हो गये। वर्ग के बाहर आये और मुख्याध्यापक को डाँटफटकार कर गुस्से में स्कूल से चले गये। फिर मुख्याध्यापक 11 वी कक्षा के कमरे में आये। विद्यार्थियों से पूछा कि किसने यह षडयंत्र रचा था। कोई बोलने को तैयार नहीं था। अत: वर्ग के समूचे विद्यार्थियों को विद्यालय से निष्कासित किया।
कुछ ही दिनों में इस घटना का पता अभिभावकों को लगा। वे मुख्याध्यापक महोदय से मिले। मुख्याध्यापक ने कडा रूख अपनाकर कहा कि विद्यार्थियों को लिखित रूप में माफी मांगनी पडेगी। तभी उनको प्रवेश मिलेगा। विद्यार्थी इस के लिये तैयार नहीं हुये। तब मध्यम रास्ता निकाला गया कि मुख्याध्यापक कक्षा के द्वारपर खडे रहेंगे। एकेक विद्यार्थी से पूछेंगे कि तुमसे गलती हुई ना और विद्यार्थी सम्मतिदर्शक मुंडी हिलायेगा और कक्षा में प्रवेश करेगा। इस रीति से अन्य सारे विद्यार्थियोंने पुन: प्रवेश प्राप्त किया। किन्तु केशव ने यह समझोता भी नहीं माना। वह अकेला विद्यार्थी निष्कासित रहा। फिर नागपुर से करीब 150 कि. मी. दूरी पर स्थित यवतमाल नगर में स्थापित और सब शासकीय बन्धनों से मुक्त एक विद्यालय में प्रवेश कर उसने मॅट्रिक की परीक्षा दी और वह उसने उत्तीर्ण भी की। इस परीक्षा उत्तीर्णता के दाखिले पर ‘द नॅशनल कौन्सिल ऑफ बेंगाल’ इस संस्था के अध्यक्ष तथा सुविख्यात क्रांतिकारक डॉ. रासबिहारी घोष के हस्ताक्षर थे।

कोलकाटा में
केशव आगे की पढाई के लिये इच्छुक था। उसने कोलकाटा का चयन किया। इस के लिये दो कारण थे। पहिला यह कि मॅट्रिक का दाखिला बंगाल का था। और दूसरा यह कि कोलकाटा क्रांतिकारियों का गढ था। केशव की आयु 19 हो गई थी। मन से वह क्रांतिकारक बन गया था। कोलकाटा जाते ही उसने अपने शरीर को भी उस में झोंक दिया। क्रांतिकारियों की सब गतिविधियों का ज्ञान उसने प्राप्त किया। क्रांतिकारियों की केन्द्रीय समिती जो ‘अनुशीलन समिति’ के नाम से प्रसिद्ध थी, उसका भी वह सदस्य बना। साथ साथ डॉक्टरी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। डॉक्टरी की प्रात्यक्षिक शिक्षा का कार्यकाल पूरा कर केशव 1915 में नागपुर आ गया।अब वे डॉ. केशव बळीराम हेडगेवारYबन गये थे।

मर्यादाओं का ध्यान
शासकीय सेवा में प्रवेश के लिये या अपना अस्पताल खोलकर पैसा कमाने के लिये वे डॉक्टर बने ही नहीं थे। भारत का स्वातंत्र्य यही उनके जीवन का ध्येय था। उस ध्येय का विचार करते करते उनके ध्यान में स्वतंत्रता हासील करने हेतु क्रांतिकारी क्रियारीतियों की मर्यादाएं ध्यान में आ गई। दो-चार अंग्रेज अधिकारियों की हत्या होने के कारण अंग्रेज यहाँ से भागनेवाले नहीं थे। किसी भी बडे आंदोलन के सफलता के लिये व्यापक जनसमर्थन की आवश्यकता होती है। क्रांतिकारियों की क्रियाकलापों में उसका अभाव था। सामान्य जनता में जब तक स्वतंत्रता की प्रखर चाह निर्माण नहीं होती, तब तक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होगी और मिली तो भी टिकेगी नहीं, यह बात अब उनके मनपर अंकित हो गई थी। अत: नागपुर लौटने के बाद गहन विचार कर थोडे ही समय में उन्होंने उस क्रियाविधि से अपने को दूर किया और काँग्रेस के जन-आंदोलन में पूरी ताकत से शामील हुये। यह वर्ष था 1916। लोकमान्य तिलक जी मंडाले का छ: वर्षों का कारावास समाप्त कर मु़क़्त हो गये थे। ‘‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और उसे मैं प्राप्त करके ही रहूँगा’’ उनकी इस घोषणा से जनमानस में चेतना की एक प्रबल लहर निर्माण हुई थी। डॉ. केशवराव हेडगेवार भी उस लहर के अंग बन गये। उससे एकरूप हो गये। अंग्रेज सरकार के खिलाफ उग्र भाषण भी देने लगे। अंग्रेज सरकारने उनपर भाषणबंदी का नियम लागू किया। किन्तु डॉक्टर जी ने उसे माना नहीं। और अपना भाषणक्रम चालूही रखा। फिर अंग्रेज सरकारने उनपर मामला दर्ज किया और उनको एक वर्ष की सश्रम कारावास की सजा दी। 12 जुलाय 1922 को कारागृह से वे मुक्त हुये।

संघ का जन्म
एक वर्ष के कारावास में उनके मन में विचारमंथन अवश्य ही चला होगा। उनके मन में अवश्य यह विचार आया होगा कि क्या जनमानस में स्वतंत्रता की चाह मात्र से स्वतंत्रता प्राप्त होगी। वे इस निष्कर्षपर आये कि स्वतंत्रता के लिये अंग्रेजों से प्रदीर्घ संघर्ष करना होगा। उस हेतु जनता में से ही किसी एक अंश को संगठित होकर नेतृत्व करना होगा। जनता साथ तो देगी किन्तु केवल जनभावना पर्याप्त नहीं होगी। स्वतंत्रता की आकांक्षा से ओतप्रोत एक संगठन खडा होना आवश्यक है, जो जनता का नेतृत्व करेगा, तभी संघर्ष दीर्घ काल तक चल सकेगा। जल्दबाजी से कुछ मिलनेवाला नहीं है। अत: कारावास से मुक्त होनेपर इस दिशा में उनका विचारचक्र चला और उसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म हुआ।

संघ की कार्यरीति
यह संगठन हिन्दुओं का ही होगा, यह भी निश्चय उनका हो गया था। क्यौं कि इस देश का भाग्य और भवितव्य हिन्दु समाज से निगडित है। अन्य समाजों का साथ मिल सकता है। किन्तु संगठन की अभेद्यता के लिये केवल हिन्दुओं का ही संगठन हो इस निष्कर्षपर वे आये। अंग्रेज चालाख है। फूट डालने की नीति में कुशल है और सफल भी थे। यह डॉक्टर जी ने भलीभाँति जान लिया। इस लिये उन्होंने हिन्दुओं का ही संगठन खडा करने का निश्चय किया। हिन्दु की परिभाषा उनकी व्यापक थी। उस में सिक्ख, जैन और बौद्ध भी अन्तर्भूत थे। वे यह भी जानते थे कि हिन्दु एक जमात (community) नहीं है। वह ‘राष्ट्र’ है। अत: उन्होंने, अनेक सहयोगियों से विचार कर उसका नाम ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ रखा।
हिन्दुओं का संगठन खडा करना यह आसान बात नहीं थी। अनेक जातियों में, अनेक भाषाओं में, अनेक संप्रदायों में हिन्दु समाज विभक्त था। इतनाही नहीं तो अपनी अपनी जाति के, भाषा के और संप्रदाय के अभिमान भी उत्कट थे। साथ ही जातिप्रथा के कारण उच्चनीच भाव भी था। अस्पृश्यता का भी प्रचलन था। इन सब बाधाओं का विचारकर, उन्होंने अपनी अलोकसामान्य प्रतिभा से एक अभिनव कार्यपद्धति का निर्माण किया। वह पद्धति यानी संघ की दैनंदिन शाखा की प्रद्धति। हम अपने समाज के लिये, अपने देश के लिये कार्य करना चाहते हैं ना, तो अपने 24 घण्टों के समय में से कम से कम एक घण्टा संघ के लिये देने का उन्होंने आग्रह रखा। और उनकी दूसरी विशेषता यह थी, समाज में के भेदों का जिक्र ही नहीं करना। बस् एकता की बात करना। अन्य समाजसुधारक भी उस समय थे। उनको भी जातिप्रथा के कारण आया उच्चनीच भाव तथा अस्पृश्यता को मिटाना था। किन्तु वे जाति का उल्लेख कर उसपर प्रहार करते थे। डॉक्टर जी ने एक नये मार्ग को चुना। उन्होंने तय किया कि व्यक्ति की जाति ध्यान में नहीं लेंगे। केवल सब में विराजमान एकत्व की यानी हिन्दुत्व की ही भाषा बोलेंगे। इस कार्यपद्धति द्वारा उन्होंने शाखा में सब को एक पंक्ति में खडा किया। एक पंक्ति में कंधे से कंधा मिलाकर चलने को सिखाया और क्रांतिकारी बात यह थी एक पंक्ति में सबको भोजन के लिये बिठाया। ‘एकश: सम्पत्’ यह जो संघ शाखापद्धति की विशिष्टतापूर्ण आज्ञा है वह डॉक्टर जी की मौलिक विचारसरणी का प्रतीक है। मैं तो कहूँगा कि वह एक क्रांतिकारी आज्ञा है। सारा संघ उस आज्ञा के भाव से आज तक अनुप्राणित है।

खास तरीका
इसका एक उदाहरण मेरे स्मरण में है। बात 1932 की है। प्रथम बार नागपुर में संघ के शीत शिबिर में जिनको समाज अस्पृश्य मानता था, उस समाज से स्वयंसेवक आये। उनके ही पडोस के मुहल्ले से आये हुये अन्य जाति के स्वयंसेवकों ने डॉक्टर जी से कहा कि, हम इनके साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं करेंगे। डॉक्टर जी ने उनको यह तो नहीं कहा कि आप शिबिर से चले जाइये। उन्होंने उनसे कहा ‘ठीक है, आप अलग पंक्ति बना कर भोजन कीजिये। मैं तो उनके साथ ही भोजन करूँगा।’’ उस दिन उस विशिष्ट जाति के 10-12 स्वयंसेवकों ने अलग पंक्ति में बैठकर भोजन किया। अन्य करीब तीनसौ स्वयंसेवकोंने, डॉक्टर जी समेत, समान पंक्तियों में बैठकर अपना भोजन किया। दूसरे दिन चमत्कार हुआ। उन 10-12 स्वयंसेवकों ने भी सब के साथ पंक्ति में बैठकर भोजन किया। बोर्डपर विद्यमान किसी रेषा को छोटी करनी हो तो उसके लिये दो तरीके हैं। एक यह कि डस्टर लेकर उस रेषा को किसी एक छोर से मिटाये। और दूसरा यह कि उस रेषा के ऊपर एक बडी रेषा खींचे। वह मूल रेषा आपही आप छोटी हो जाती है। डॉक्टर जी ने दूसरे तरीके को अपनाया। सब के ऊपर हिन्दुत्व की बडी रेषा खींची। बाकी सब रेषाएं आप ही आप छोटी हो गई। इस पद्धति की सफलता यह है कि संघ में किसी व्यक्ति की जाती पूछी ही जाती नहीं। इस तरीके से संघ में जातिभेद मिट गया। छुआछूत समाप्त हुई। 1934 में महात्मा जी ने भी संघ की इस विशेषता का, उनके आश्रम के समीप जो संघ का शिबिर लगा था, उस में जाकर स्वयं अनुभव किया। संघ जातिनिरपेक्ष, भाषानिरपेक्ष, पंथनिरपेक्ष बना। और बिखरे हुये हिन्दुओं का संगठन करने में सफल बना।

गुरुदक्षिणा
संघ की कार्यशैली की दूसरी विशेषत: यह है कि संघ की जो भी आवश्यकताएं र्है वे संघ के स्वयंसेवक ही पूर्ण करेंगे। संस्था चलाने के लिये धन चाहये ही। वह कौन देगा। अर्थात् स्वयंसेवक देंगे। संघ किसी से दान नहीं लेता। जो भी देना है वह स्वयंसेवक देंगे। और वह भी समर्पण भावना से, दान की भावना से नहीं। दान की भावना अहंकार को जन्म देती है। देनेवालो का हाथ हमेशा ऊपर रहता है। संघ की गुरुदक्षिणा की पद्धति के कारण संघ पूर्णत: स्वतंत्र है। किसी का भी दबेल नहीं है।

गुरु कौन?
गुरुदक्षिणा तो प्रारंभ हुई। किन्तु गुरु कौन? डॉक्टर जी ने बताया कि कोई व्यक्ति संघ में गुरु नहीं। भगवा ध्वज अपना गुरु। वह ध्वज त्याग का, पवित्रता का, तथा पराक्रम का प्रतीक है। गुरुदक्षिका में उसका पूजन तथा उसी को समर्पण। इस पद्धति के कारण संघ में व्यक्तिमाहात्म्य नहीं। किसी भी व्यक्ति का जयघोष नहीं। ‘डॉ. हेडगेवार की जय’ यह भी घोष नहीं तो औरों की बात ही क्या? संघ में केवल एकमात्र जयघोष है ‘भारत माता की जय’।

कार्यकर्ता
किसी भी संस्था चलाने के लिये कार्यकर्ता चाहिये। वे कहॉ से आयेंगे। डॉक्टर जी ने वे संघ से ही निर्माण किये। उत्कट देशभक्ति और निरपेक्ष समाजनिष्ठा की भावना से डॉक्टर जी ने तरुणों को अनुप्राणित किया। और 18-20 वर्ष की आयुवाले तरुण, अननुभवी होते हुये भी, रावलपिंडी, लाहोर, देहली, लखनौं, चेन्नई, कालिकत, बेंगलूर ऐसे सुदूर स्थित अपरिचित शहरों में गये। प्राय:, शिक्षा का हेतु लेकर ये तरुण गये। किन्तु मुख्य उद्देश्य था वहाँ संघ की शाखा स्थापन करना। इन तरुणों ने अपने समवयस्क तरुणों को अपने साथ यानी संघ के साथ जोडा। और शिक्षा समाप्ति के पश्चात् भी वे वहीं कार्य करते रहे। उनके परिश्रम से संघ आसेतुहिमाचल विस्तृत हुआ। उस समय ‘प्रचारक’ यह संज्ञा रूढ नहीं हुई थी। किन्तु ये सारे प्रचारक ही थे। आज भी उच्चविद्याविभूषित तरुण, ‘प्रचारक’ बनकर अपना सारा जीवन संघ के लिये समर्पित करते दिखाई देते हैं। इन कार्यकर्ताओं के प्रयत्नों को अभूतपूर्व यश मिला और 1940 के नागपुर में हुये संघ शिक्षा वर्ग में एक असम का अपवाद छोडकर उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक के सब प्रान्तों से शिक्षार्थी स्वयंसेवक उपस्थित थे। डॉक्टर जी अपनी आँखों में हिंदुस्थान का लघुरूप देख सके। उस शिक्षा वर्ग के समाप्ति के पश्चात् केवल 11 दिनों के बाद ही यानी 21 जून 1940 को डॉक्टर जी ने इहलोक की जीवनयात्रा समाप्त की। 51 वर्षों का उनका जीवन कृतार्थ हुआ।
आज डॉक्टर जी ने स्थापन किया हुआ संघ भारत के सभी जिलों में फैला है। और भारत के बाहर 35 देशों में उसका विस्तार हुआ है। अंतर इतना ही कि विदेश स्थित संघ का नाम हिंदू स्वयंसेवक संघ है। आज की बिगडी हुई सामाजिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में संघ ही एकमात्र जनता की आशा का स्थान है।

शनिवार, 25 मार्च 2017

वीर विनायक दामोदर सावरकर !


महान क्रन्तिकारी का संक्षिप्त जीवन परिचय जिसे पढ़कर आपके रौंगटे खड़े हो जाएंगे !!
यह कहा जाए कि आधुनिक भारतीय इतिहास में जिस महापुरुष के साथ सबसे अधिक अन्याय हुआ, वह सावरकर ही हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सावरकर ‘नाख़ून कटाकर’ क्रन्तिकारी नहीं बने थे।
27 वर्ष की आयु में, उन्हें 50-50 वर्ष के कैद की दो सजाएँ हुई थीं। 11 वर्ष के कठोर कालापानी के सहित उन्होंने कुल 27 वर्ष कैद में बिताए। सन 1857 के विद्रोह को ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ बताने वाली प्रामाणिक पुस्तक सावरकर ने ही लिखी।
ब्रिटिश जहाज से समुद्र में छलांग लगाकर, सावरकर ने ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अंतर्राष्ट्रीयकरण किया। ‘हिंदुत्व’ नामक पुस्तक लिखकर सावरकर ने ही भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित किया। जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का विरोध, पूरी शक्ति से सावरकर ने ही किया।
जातिवाद और अश्पृश्यता का जैसा विरोध वीर सावरकर ने किया था, वैसा तो कांग्रेस तब क्या, आज भी नहीं कर सकती है।
वीर सावरकर जी के बारें में 25 ऐतिहासिक बातें जो आप सभी को जाननी चाहिये......
1. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का विरोध किया और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थी, हम शोक क्यूँ करें? क्या किसी भारतीय महापुरुष के निधन पर ब्रिटेन में शोक सभा हुई है.?
2. वीर सावरकर पहले देशभक्त थे जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बकेश्वर में बड़े बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ…
3. विदेशी वस्त्रों की पहली होली पूना में 7 अक्तूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी…
4. वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया, तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी जबकि इस घटना की दक्षिण अफ्रीका के अपने पत्र ‘इन्डियन ओपीनियन’ में गाँधी ने निंदा की थी…
5. सावरकर द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गाँधी उनके मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 को मुंबई के परेल में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया…
6. सावरकर पहले भारतीय थे जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्म्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया और दस रूपये जुरमाना किया… इसके विरोध में हड़ताल हुई… स्वयं तिलक जी ने ‘केसरी’ पत्र में सावरकर के पक्ष में सम्पादकीय लिखा…
7. वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में ग्रेज-इन परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफादार होने की शपथ नही ली… इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नही दिया गया…
8. वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक ग्रन्थ लिखकर सिद्ध कर दिया…
9. सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे जिनके लिखे ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक पर ब्रिटिश संसद ने प्रकाशित होने से पहले प्रतिबन्ध लगाया था…
10. ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ विदेशों में छापा गया और भारत में भगत सिंह ने इसे छपवाया था जिसकी एक एक प्रति तीन-तीन सौ रूपये में बिकी थी… भारतीय क्रांतिकारियों के लिए यह पवित्र गीता थी… पुलिस छापों में देशभक्तों के घरों में यही पुस्तक मिलती थी…
11. वीर सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जो समुद्री जहाज में बंदी बनाकर ब्रिटेन से भारत लाते समय आठ जुलाई 1910 को समुद्र में कूद पड़े थे और तैरकर फ्रांस पहुँच गए थे…
12. सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जिनका मुकद्दमा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला, मगर ब्रिटेन और फ्रांस की मिलीभगत के कारण उनको न्याय नही मिला और बंदी बनाकर भारत लाया गया…
13. वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई थी…
14. सावरकर पहले ऐसे देशभक्त थे जो दो जन्म कारावास की सजा सुनते ही हंसकर बोले- “चलो, ईसाई सत्ता ने हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान लिया.”
15. वीर सावरकर पहले राजनैतिक बंदी थे जिन्होंने काला पानी की सजा के समय 10 साल से भी अधिक समय तक आजादी के लिए कोल्हू चलाकर 30 पोंड तेल प्रतिदिन निकाला…
16. वीर सावरकर काला पानी में पहले ऐसे कैदी थे जिन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर कंकर कोयले से कवितायें लिखी और 6000 पंक्तियाँ याद रखी..
17. वीर सावरकर पहले देशभक्त लेखक थे, जिनकी लिखी हुई पुस्तकों पर आजादी के बाद कई वर्षों तक प्रतिबन्ध लगा रहा…
18. वीर सावरकर पहले विद्वान लेखक थे जिन्होंने हिन्दू को परिभाषित करते हुए लिखा कि-
‘आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका.
पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितीस्मृतः.’
अर्थात समुद्र से हिमालय तक भारत भूमि जिसकी पितृभू है जिसके पूर्वज यहीं पैदा हुए हैं व यही पुण्य भू है, जिसके तीर्थ भारत भूमि में ही हैं, वही हिन्दू है..
19. वीर सावरकर प्रथम राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सत्ता ने 30 वर्षों तक जेलों में रखा तथा आजादी के बाद 1948 में नेहरु सरकार ने गाँधी हत्या की आड़ में लाल किले में बंद रखा पर न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने के बाद ससम्मान रिहा कर दिया… देशी-विदेशी दोनों सरकारों को उनके राष्ट्रवादी विचारों से डर लगता था…
20. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी थे जब उनका 26 फरवरी 1966 को उनका स्वर्गारोहण हुआ तब भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने शोक प्रस्ताव रखा तो यह कहकर रोक दिया गया कि वे संसद सदस्य नही थे जबकि चर्चिल की मौत पर शोक मनाया गया था…
21.वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त स्वातंत्र्य वीर थे जिनके मरणोपरांत 26 फरवरी 2003 को उसी संसद में मूर्ति लगी जिसमे कभी उनके निधन पर शोक प्रस्ताव भी रोका गया था….
22. वीर सावरकर ऐसे पहले राष्ट्रवादी विचारक थे जिनके चित्र को संसद भवन में लगाने से रोकने के लिए कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा लेकिन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने सुझाव पत्र नकार दिया और वीर सावरकर के चित्र अनावरण राष्ट्रपति ने अपने कर-कमलों से किया…
23. वीर सावरकर पहले ऐसे राष्ट्रभक्त हुए जिनके शिलालेख को अंडमान द्वीप की सेल्युलर जेल के कीर्ति स्तम्भ से UPA सरकार के मंत्री मणिशंकर अय्यर ने हटवा दिया था और उसकी जगह गांधी का शिलालेख लगवा दिया..
24. वीर सावरकर ने दस साल आजादी के लिए काला पानी में कोल्हू चलाया था जबकि गाँधी ने कालापानी की उस जेल में कभी दस मिनट चरखा नही चलाया..
25. वीर सावरकर माँ भारती के पहले सपूत थे जिन्हें जीते जी और मरने के बाद भी आगे बढ़ने से रोका गया…
पर आश्चर्य की बात यह है कि इन सभी विरोधियों के घोर अँधेरे को चीरकर आज वीर सावरकर के राष्ट्रवादी विचारों का सूर्य उदय हो रहा है………
जय जननी, जय मातृभूमि.....

गुरुवार, 23 मार्च 2017

*"भारतीय नववर्ष, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत् 2074 (29 मार्च, 2017)" की आप सभी को अग्रिम हार्दिक शुभकामनाएँ।*
*चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का ऐतिहासिक महत्व :*
*1.* इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की।
*2.* सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन राज्य स्थापित किया। इन्हीं के नाम पर विक्रमी संवत् का पहला दिन प्रारंभ होता है।
*3.* प्रभु श्री राम के राज्याभिषेक का दिन यही है।
*4.* शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात् नवरात्र का पहला दिन यही है।
*5.* सिख परंपरा के द्वितीय गुरू श्री अंगद देव जी के जन्म दिवस का यही दिन है।
*6.* स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने इसी दिन को आर्य समाज की स्थापना दिवस के रूप में चुना।
*7.* सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए।
*8.* विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।
*9.* युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ।
*भारतीय नववर्ष का प्राकृतिक महत्व :*
*1.* वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरी होती है।
*2.* फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।
*3.* नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है।
*भारतीय नववर्ष कैसे मनाएँ :*
*1.* हम परस्पर एक दुसरे को नववर्ष की शुभकामनाएँ दें।
*2.* आपने परिचित मित्रों, रिश्तेदारों को नववर्ष के शुभ संदेश भेजें।
*3 .* इस मांगलिक अवसर पर अपने-अपने घरों पर भगवा पताका फेहराएँ।
*4.* आपने घरों के द्वार, आम के पत्तों की वंदनवार से सजाएँ।
*5.* घरों एवं धार्मिक स्थलों की सफाई कर रंगोली तथा फूलों से सजाएँ।
*6.* इस अवसर पर होने वाले धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लें अथवा कार्यक्रमों का आयोजन करें।
*आप सभी से विनम्र निवेदन है कि "भारतीय नववर्ष" हर्षोउल्लास के साथ मनाने के लिए "समाज को अवश्य प्रेरित" करें।*
* धन्यवाद *
🚩जय श्री राम🚩

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

प्रेरक प्रसंग

एक प्रेरक प्रसंग जो मुझे आदरणीय Prakash Nayakji ने भेजा,मुझे अच्छा लगा इसलिए आप लोगों के साथ शेयर कर रहा हूँ।
धार राजा का एक उद्यान आम के पके फलों की खुश्बू से महक रहा था। मार्ग पर जाते हुये वनवासी (भील) की दृष्टि में वह आम पके फल बरवस भा गये। वनवासी ने कुछ आम नीचे गिरा लिये और इत्मीनान से वहीं बैठकर रसास्वादन लेने लगा। वह अनभिज्ञ था, निश्चिंत भी पर थोड़ी ही देर में राजा के नियुक्त उद्यान रक्षकों ने उसे रँगे हाथों पकड़ लिया।
उद्यान रक्षक, हाथ बाँधकर वनवासी को राजा के समीप ले गये। राजा ने बिना अनुमति के उद्यान में प्रवेश पर कड़ी सजा मुकर्रर कर रखी थी, पर इस वनवासी का अपराध कुछ अधिक ही था। रक्षक आश्वस्त थे, वनवासी को कठोर दण्ड और उन्हें इनाम मिलेगा।
राजा ने रक्षकों को तो इनाम दिया पर वनवासी को क्षमा माँगकर छोड़ दिया। ऐसे न्याय को देख सुनकर खचाखच भरे दरबार में प्रश्नों से भरा सन्नाटा छा गया। हर आँख कठोर सजा के लिये प्रसिद्ध राजा से एक ही प्रश्न पूछ रही थी कि अब बगीचे से राहगीरों को फल तोड़ लेने की आजादी हो गयी है क्या?
सिंहासन पर विराजमान राजा ने दरबारियों से मुखातिब होते हुये कहा कि प्रिय स्वजनो! आज पहली बार किसी राह चलते वनवासी ने हमारे बगीचे के हमारी इजाजत के बिना फल तोड़े हैं। आप सभी को मैं यह बताना अपना फर्ज़ समझता हूँ कि मैंने उसे सज़ा क्यों नहीं दी। माफ़ी क्यों माँगी?
दरबारियों के कान राजा के उत्तर को सुनने के लिये टक टक करने लगे। गंभीर और आत्मविश्वास से भरी आवाज सिंहासन की सीमा पारकर पूरे दरबार में साँय साँय करती हुई गुंजायमान होने लगी। एक सन्नाटा, क्या हुआ चोरी के नियमों में ऐसी शिथिलता उन्होंने कभी न देखी थी।
वनवासी वनों के स्वामी हैं,हमने उनके वन पर अपना अधिकार कर लिया है। वनवासी इस बात से अनभिज्ञ था। उसे यही पता था कि पके फल वह तोड़ कर खा सकता है। अभी तक उसने प्रकृति पर एकाधिकार न किया और किसी को ऐसा करते देखा। वह चोरी नहीं कर रहा था, अपने जंगल के फल तोड़ कर आराम से खाने लगा, तभी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया।
सिपाहियों को उनके कर्तव्य पालन का इनाम दिया गया और वनवासी जो इस वन का नैसर्गिक मालिक है उससे हमने क्षमा माँगी। यदि मैं ऐसा नहीं करता तो अन्याय होता और वनवासी सोचता रहता कि आखिर उसे दण्ड किस बात का दिया। अपनी जरुरत से अधिक का संग्रह न करनेवाले प्रकृति के असली संरक्षक यही हैं, हम तो उसपर अधिकार करनेवाले हैं।
राजा ने आगे कहा कि जिस दिन हम वनवासियों पर अपने नियम चलाना शुरू कर देंगे उस दिन से शान्ति खतम हो जायेगी अत: मेरे राज्य में वनवासियों पर मेरे बनाये नियम लागू नहीं होंगे। नगरवासियों पर ही मेरे कानून लागू रहेंगे। सन 1827 ईस्वी तक वनवासी राजाओं के नियमों मुक्त एवं स्वतंत्र सत्ता के स्वामी की तरह रहे।
अंग्रेजों ने वनवासियों की स्वतन्त्रता को छीन लिया तभी से वनवासियों को बदनाम करने का दौर शुरू हुआ। उनको बदनाम करने का यह दौर हॅालीवुड की फिल्मों से बॅालीवुड की फिल्मों से होते हुये पूरे भारत में फैल गया।
हमारे ही पूर्वजों को हमने ही न जाने क्या क्या कहा, उन पवित्र आत्माओं को समझे बिना उन पर कैसी कैसी विपदा आई,सुनकर रोंगटे खड़े हो जायेंगे। आवश्यक है भारतीय अरण्य संस्कृति के जन्मदाताओं को जानने और समझने की।

मंगलवार, 16 अगस्त 2016

चौदह अगस्त पर विशेष


चौदह अगस्त पर विशेष अखंड भारत के लिए संकल्प लें युवा

किसी भी राष्ट्र और समाज के जीवन में कुछ ऐसे अवसर आते हैं जो उसकी दिशा और दशा को ही बदल देते हैं। ऐसे समय में नेतृत्व की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। उनका सूझबुझ से भरा एक कदम देश को शिखर की ओर भी मोड़ देता है वहीं उनकी थोड़ी सी चूक की कीमत वह देश सदिओं तक चुकाता रहता है। किसी ने ठीक ही कहा है-
एक कदम उठा था गलत राहे शौक में ।
मंजिल तमाम उम्र हमें ढूंढती रही।।
हमारे प्राचीन राष्ट्र जीवन में 14 अगस्त1947 की रात ऐसा ही दुर्भाग्यपूर्ण क्षण था जिसने भारत को हमेशा के लिए अपंग बना दिया। देशवाशियों का आजादी को लेकर चिर सञ्चित उत्साह एकदम मंद ही पड़ गया। एक लम्बे इंतजार और खूनी संघर्ष के बाद मिली आजादी के बाद उन्मुक्त गगन में उड़ान भरने से पहले ही हमारे पंखों को काट कर रख दिया। भारत विभाजन कैसे हो गया, इसके लिए दोषी कौन है? यह आज तक रहस्य बना हुआ है। हमारे उस समय के नेता अंतिम समय तक देश को आश्वाशन देते रहे कि विभाजन नहीं होगा। ये राजनेता परिस्थिति का सही आकलन नहीं कर सके या जानबूझ कर आजादी के बाद उनके सत्ता के रंग में भंग न पड़ जाये इसी डर से देश को अँधेरे में रखा अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे तत्कालीन कुछ नेता अति सज्जनता और कुछ सत्ता प्राप्त कर उसे भोगने के लालच में अंग्रेज के हाथ का खिलौना बन गये। भारत को दो फाड़ करने के अंग्रेजी षड्यंत्र में जाने अनजाने सहयोगी हो गये। इसलिए आम जनता को समझ नहीं आ रहा था कि शिकायत करें भी किससे करें? सर्व सामान्य लोगों की स्थिति कुछ ऐसी ही थी-
सोचा था कि हाकिम से करेंगे शिकायत।
कमबख्त वो भी तुझे चाहने वाला निकला।।
बिडम्बना ऐसी कि देश्वासिओं से न रोते बन रहा था और न ही हंसते। एक तरफ सदियों के लम्बे संघर्ष के बाद मिली आजादी पर नाचने व् झूमने को मन कर रहा था तो वहीं दूसरी ओर अपनी प्रिय जन्मभूमि का दुखद विभाजन, अपने परिजनों का कत्लेआम, मुस्लिम गुंडों द्वारा लाखों महिलाओं से बलात्कार और अपनी अस्मिता लुटने से बचने के लिए घर की महिलाओं की जिद के कारण अपने ही हाथों मौत दे देना,  जमीन-जायदाद को पाकिस्तान में छोड़ कर, मृत्यु से सीधे टक्कर लेते हुए भारत पहुँचने और परिवार सहित (जिसका जितना बचा)  के साथ सडक पर शरणार्थी बन कर रहने की बेबसी की दिल दहला देने वाली व्यथ कथा! जितना हम देशवासी अंग्रेजों से दो दो हाथ करते, असंख्य बलिदान देते दो सौ साल तक नही थके थे उससे ज्यादा हम अपनॊ के हाथों ठगे जाने के दर्द से एक ही रात में टूट गए और हिम्मत हार चुके थे। राष्ट्र और समाज के रूप में भी हम पूरी तरह टूट गये थे। आजादी के बाद नेता सत्ता भोग में मस्त हो गये, देशवासी भी टूटे मन से ही सही लेकिन अपने जीवन निर्वाह में व्यस्त हो गये। बस केवल भारत माता अपने  विभाजन के दर्द को सीने में लिए सिसकती रही। ऋषियों, तपस्वियों की पवित्र भूमि को दो टुकड़े होते असहाय हो कर देखती रही। आश्चर्य की बात तो यह हुई कि  किसी नेता या दल ने इतनी बड़ी दुर्घटना पर राष्ट्रीय चर्चा और जाँच और दोषियों को दण्डित करने की जरूरत भी नहीं समझी। देश विभाजन की बिभीषिका को सब ऐसे भूल गये जैसे कोई सामान्य घटना हो। यही समाज की विस्मृति का ही लक्षण होता है।
विभाजन की नौबत क्यूँ आई... वास्तव में भारत को हमेशा के लिए पंगु बनाने के लिए विभाजन के षड्यंत्र  पर अंग्रेज बहुत पहले से सक्रिय हो गया था। पहले 1885 में कांग्रेस की स्थापना और फिर 1906 में कांग्रेस की सौतन मुस्लिम लीग की स्थापना ये सब अंग्रेज की बड़ी योजना का ही हिस्सा था। अंग्रेज ने कांग्रेस के सामने देश की स्वंतत्रता के  लिए हिन्दू मुस्लिम एकता को पूर्व शर्त के रूप में रख दिया। और अंग्रेज ने बड़ी चतुराई से कांग्रेस को मुस्लिम लीग को आजादी के लिए साथ आने के लिए मनाने के काम में लगा दिया। यह कार्य कुत्ते की दुम सीधी करने जैसा ही दुष्कर था। अंग्रेज ने अपनी भूमिका 'चोर को कहना चोरी कर और घर वालों को कहना कि जागते रहो' वाली रखी। दुर्भाग्य से भारत का कांग्रेसी नेतृत्व अंग्रेज की उस कूटनीति को समझ नहीं पाया। कांग्रेस के पुचकारने और अंग्रेज के पर्दे के पीछे के सहयोग के कारण मुस्लिम लीग आजादी के आन्दोलन में अपनी सहभागिता के लिए कई शर्ते रखती गयी, बिना मतलब से ऐंठती गयी। महान क्रन्तिकारी और विचारक वीर सावरकर, महृषी अरविन्द और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प्रमुख श्री गुरु जी ने कांग्रेस नेतृत्व को सावधान करने की कोशिश की लेकिन कांग्रेसी नेतृत्व ने अपने अंहकार, अंग्रेज पर जरूरत से ज्यादा विश्वास करने के कारण जाने अनजाने देश को विभाजन की तरफ धकेल दिया।
ठगे गये महसूस कर रहे थे देशवासी- भारत का विभाजन दुनिया की बहुत बड़ी दुर्घटना थी। इस में लगभग 10 लाख लोगों का कत्लेआम तथा लगभग 20 लाख से ज्यादा लोग बेघर हुए। इससे भी बड़ी बात कि जनता और राजनेता किसी को भी विभाजन हो ही जायेगा इसका विश्वास नहीं था। राजनेताओं में दूरदृष्टि का घोर अकाल, सत्ता प्रप्ति की बेचैनी और जनता का नेताओं पर जरूरत से ज्यादा विश्वास को ही विभाजन के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है। कुछ दिन पहले पंडित जवाहर लाल नेहरु कहते घूम रहे थे कि विभाजन की बात करने वाले मूर्खों के लोक में रहते हैं। स्वयं गांधी जी ने कहा था कि मेरी लाश पर होगा बंटवारा! इतना ही नहीं तो स्वयं जिन्ना को भी अलग देश का स्वप्न साकार हो ही जायेगा इसका कतई बिश्वास नहीं था। कराची हवाई अड्डे पर उतरते ही उन्होंने अपने मन की यह बात सचिव को कही थी। लेकिन देशवासियों को 14 अगस्त 1947 की रात्रि को विभाजन के रूप में  अंग्रेज, कांग्रेस और मुस्लिम लीग की तिकड़ी अश्व्थामा जख्म दे गयी। यह जख्म छ: दशकों के बाद भी लगातार रिस रहा है और ठीक होने का नाम नहीं ले रहा है।
क्या भारत फिर अखंड हो सकता है-
प्राय: पूछा जाता है कि क्या विभाजन खत्म हो सकता है? वैसे यह प्रश्न ही आत्मविश्वास की कमी का सूचक है। अगर देश टूट सकता है तो एक क्यूँ नहीं हो सकता है? इस की सम्भावना पर विचार करने से पहले अखंड भारत क्यूँ जरूरी है इस पर  चर्चा आवश्यक है। सबसे पहली बात यही है कि देश के सभी महापुरुषों
ने योगी अरविन्द, मदन मोहन मालवीय, विनोबा भावे, और संघ के दूसरे प्रमुख श्री गुरु जी गोलवलकर सभी ने भारत विभाजन को प्रकृति के विरुद्ध कहा है। इसके साथ उन्होंने स्पष्ट चेताया था कि साथ जब तक विभाजन बना रहेगा भारत के साथ-साथ इसके पूर्व अंग भी दुखी ही रहेंगे। पाकिस्तान और बांग्लादेश उस नाराज बच्चे की तरह व्यवहार करते हैं जो गुस्से में घर से बाहर निकल कर वापिस आने के लिए  माँ का ध्यान खींचने लिए कभी दरवाजा पीटता है तो कभी तोड़फोड़ तथा चीख पुकार करता रहता है जब तक माँ उसे अपने अंचल में न ले ले।  समझदार माँ उसकी बातों, शब्दों पर ध्यान न देकर कर  प्यार-पुचकार या जबरदस्ती उसे घर के अंदर खींच लेती है। बच्चा भी बोले कुछ भी लेकिन वास्तव में यही चाहता है। अत: भारत के उस माँ की तरह व्यवहार करते ही विभाजन खत्म हो कर रहेगा। आज जब हम विचार करते हैं तो उन महापुरुषों की भविष्यवाणी अक्षरश: सच लगती है। भारत भी पाक प्रेरित आतंकवाद से रोज नये -2 जख्म खा रहा है वहीं ये पड़ोसी स्वयं भी खुश नहीं हैं। समाधान के लिए उन महापुरुषों की दूसरी बात अर्थात विभाजन समाप्त कर अखंड भारत के स्वप्न को सच में बदल देना ही समस्या का एक मात्र हल है। क्या यह सम्भव है? पहली बात है कि युवाओं के संकल्प के आगे असम्भव कुछ भी नहीं होता। हमें याद रखना होगा कि हर बड़ा लक्ष्य चाहे कभी आसमान में उड़ने का रहा होगा या भारत को अंग्रेज सत्ता के खूनी पंजों से मुक्त करा लेने का होगा शुरू में दिवास्वप्न ही होता है। किसी देश की सीमाएं बिलकुल स्थायी नहीं होती बल्कि उस देश के युवाओं के संकल्प और बहुबल की अनुगामी होती हैं। दुनिया की ओर भी देखें तो कई देश दोबारा एक हो रहे हैं। जर्मनी एक चुका है। कोरिया और अफ्रीका एक होने के मार्ग पर हैं। फिर भारत ही क्यूँ नहीं हो सकता अखंड?
कैसे हो यह स्वप्न साकार--
सबसे पहली बात कि गुरु नानक के ननकाना साहिब, कुश के कसूर और लव के लाहौर,अपने प्रिय मानसरोवर, आधे से ज्यादा पंजाब, कश्मीर और उधर ढाका की ढाकेश्वरी के बिना भारत सम्पूर्ण नहीं हो सकता है, यह दर्द और विश्वास युवा भारत के मन में पक्का बैठना आवश्यक है। इसलिए देश को अखंड करने के अपने स्वप्न और संकल्प को न केवल बनाये रखना होगा बल्कि उस दिशा आगे बढ़ने की योजना भी करनी होगी। हमे याद रखना होगा कि बड़े स्वप्न को साकार करने लिए उतना ही बड़ा धैर्य और सतत परिश्रम की आवश्यकता है। प्रतिवर्ष 14 अगस्त को युवाओं को भारत को अखंड करने की राष्ट्रीय प्रतिज्ञा करवाई जाये। पहले कदम के नाते भारत को विश्व की सैन्य और आर्थिक महाशक्ति में बदलना ताकि ये देश भारत के साथ आने की स्वयं पहल करें। भारत इन देशों को आर्थिक और सैन्य सहायता उपलब्ध कराए। पडोस में इन देशों को चीन के सम्राज्यवाद से जूझने के लिए इन हिम्मत दे और अन्य आवश्यक सहयोग करे। फिर अखंड भारत का अर्थ इन् सभी देशों का भारत में एकदम विलय नहीं है। पहले कदम के रूप में नेपाल की तरह स्वतंत्र राष्ट्र रहते हुए भी ये देश अखंड भारत का हिस्सा बन सकेंगे। भारत का मूल स्वभाव, दिल विशाल है इसलिए भारत के साथ  किसी भी देश को साथ आने में कठिनाई नही है। केंद्र की नई सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाये हैं। इन कदमों के कारण निश्चित ही आगे सार्थक परिणाम आएंगे।

सोमवार, 13 जून 2016

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी...झाँसी की रानी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
By: सुभद्रा कुमारी चौहान