बुधवार, 18 मई 2016

मुस्लिम व ईसाई बंधुओं के बारे में संघ की सोच

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का लक्ष्य सम्पूर्ण समाज को संगठित कर अपने हिन्दू जीवन दर्शन के प्रकाश में समाज की सर्वांगीण उन्नति करना यह है. रा.स्व.संघ का कार्य किसी भी मजहब विशेष के विरुद्ध नहीं है. परन्तु किसी भी प्रकार की राष्ट्र विरोधीगतिविधि का संघ हमेशा विरोध करता आया है. समाज के वामपंथी एवं तथाकथित सेकुलर लेखक, जों संघ के विरुद्ध लगातार झूठा और गलत प्रचार करते आये है, संघ को मुस्लिम एवं ईसाई विरोधी बताने का प्रयास करते रहते है. मजहब के आधार पर मुस्लिम तथा ईसाईयों के साथ भेदभाव करने की संघ की  नीति रही है, ऐसा गलत प्रचार ये लोग करते हैं और इसके समर्थन में श्री गुरुजी द्वारा लिखित “वी एंड अवर नेशनहुड डिफाइनड” नामक पुस्तक का संदर्भ वे देते है. वास्तव में, यह पुस्तक संघ का अधिकृत साहित्य नहीं है. जिस समय यह पुस्तक प्रकाशित हुई उस समय श्री गुरूजी संघ के सरसंघचालक तो नहीं थे, वे संघ के पदाधिकारी भी नहीं थे. भारत में रहने वाले मुस्लिम तथा ईसाई बंधुओं के बार में संघ की सोच क्या है यह श्री गुरूजी ने प्रसिद्ध पत्रकार श्री सैफुद्दीन जिलानी को दी मुलाकात में स्पष्ट की है. यही संघ की अधिकृत भूमिका है. यह मुलाकात 1972 में प्रकाशित हुई थी. इस मुलाकात के तथ्य नीचे प्रस्तुत हैं. इसे पढ़कर इस विषय में संघ की अधिकृत भूमिका क्या है, यह सब जान सकेंगे. संघ के विरुद्ध निराधार दुष्प्रचार करने वालों के झूठ का पर्दाफाश होगा.
जानेमाने पत्रकार डॉ. सैफुद्दीन जिलानी के साथ 30 जनवरी 1971 को श्री गुरूजी से कोलकाता में हुआ वार्तालाप:
डॉ. जिलानी: देश के समक्ष आज जो संकट मुँह बाये खड़े हैं, उन्हें देखते हुए हिन्दू-मुस्लिम समस्या का कोई निश्चित हल ढूँढना, क्या आपको प्रतीत नहीं होता ?
श्री गुरुजी: देश का विचार करते समय मैं हिंदू और मुसलमान- इस रूप में विचार नहीं करता, परंतु इस प्रश्न की ओर लोग इस दृष्टि से देखते हैं. आजकल सभी लोग राजनीतिक दृष्टिकोण से ही विचार करते दिखाई देते हैं. हर कोई राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर व्यक्तिगत अथवा जातिगत स्वार्थ सिद्ध करने में लिप्त है. इस परिस्थिति पर मात करने का केवल एक ही उपाय है और वह है राजनीति की ओर देशहित और केवल देशहित की ही दृष्टि से देखना. उस स्थिति में वर्तमान सभी समस्यायें देखते ही देखते हल हो जायेंगी.

हाल ही में मैं दिल्ली गया था. उस समय अनेक लोग मुझसे मिलने आये थे. उनमें भारतीय क्राँति दल, संगठन कांग्रेस आदि दलों के लोग भी थे. संघ को हमने प्रत्यक्ष राजनीति से अलग रखा है, परंतु मेरे कुछ पुराने मित्र जनसंघ में होने के कारण कुछ मामलों में, मैं मध्यस्थता करूँ इस हेतु से वे मुझसे मिलने आये थे. उनसे मैंने एक सामान्य-सा प्रश्न पूछा- ‘आप लोग हमेशा अपने दल का और आपके दल के हाथ में सत्ता किस तरह आये, इसी का विचार किया करते हैं. परंतु दलीय निष्ठा व दलीय हितों का विचार करते समय क्या आप संपूर्ण देश के हितों का कभी विचार करते हैं?’ इस सामान्य से प्रश्न का ‘हाँ’ में उत्तर देने कोई सामने नहीं आया. समग्र देश के हितों का विचार सचमुच उनके सामने होता, तो वे वैसा साफ-साफ कह सकते थे, किंतु उन्होंने नहीं कहा. इसका अर्थ स्पष्ट है कि कोई भी दल समग्र देश का विचार नहीं करता. मैं समग्र देश का विचार करता हूं. इसलिये मैं हिंदुओं के लिये कार्य करता हूँ, परंतु कल यदि हिंदू भी देश के हितों के विरुद्ध जाने लगें, तब उनमें मेरी कौन-सी रुचि रह जायेगी?
रही मुसलमानों की बात. मैं यह समझ सकता हूँ कि अन्य लोगों की तरह उनकी भी न्यायोचित माँगें पूरी की जानी चाहिये, परंतु जब चाहे, तब विभिन्न सहूलियतों और विशेषाधिकारों की माँगें करते रहना कतई न्यायोचित नहीं कहा जा सकता. मैंने सुना है कि प्रत्येक प्रदेश में एक छोटे पाकिस्तान की माँग उठाई गई है. जैसा कि प्रकाशित हुआ है, एक मुस्लिम संगठन के अध्यक्ष ने तो लाल किले पर अपना झंडा फहराने की योजना की बात कही है. उन महाशय ने अब तक इसका खंडन भी नहीं किया है. ऐसी बातों से समग्र देश का विचार करनेवालों का संतप्त होना स्वाभाविक है.
उर्दू के आग्रह का विचार करें. पचास वर्षों के पूर्व तक विभिन्न प्रांतों के मुसलमान अपने-अपने प्रांतों की भाषायें बोला करते थे तथा उन्हीं भाषाओं में शिक्षा-ग्रहण किया करते थे. उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि उनके धर्म की कोई अलग भाषा है.
उर्दू मुसलमानों की धर्म-भाषा नहीं है. मुगलों के समय में एक संकर भाषा के रूप में वह उत्पन्न हुई. इस्लाम के साथ उसका रत्ती-भर संबंध नहीं है. पवित्र कुरान अरबी में लिखा है. अतः मुसलमानों की अगर कोई धर्म-भाषा हो, तो वह अरबी ही होगी. ऐसा होते हुए भी आज उर्दू का इतना आग्रह क्यों? इसका कारण यह है कि इस भाषा के सहारे वे मुसलमानों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करना चाहते हैं. यह संभावना ही नहीं तो एक निश्चित तथ्य है कि इस तरह की राजनीतिक शक्ति देशहित के विरुद्ध ही जायेगी.
कुछ मुसलमान कहते हैं कि उनका राष्ट्र-पुरुष रुस्तम है. सच पूछा जाये, तो मुसलमानों का रुस्तम से क्या संबंध? रुस्तम तो इस्लाम के उदय के पूर्व ही हुआ था. वह कैसे उनका राष्ट्र-पुरुष हो सकता है? और फिर, प्रभु रामचंद्र जी क्यों नहीं हो सकते? मैं पूछता हूँ कि आप यह इतिहास स्वीकार क्यों नहीं करते?
पाकिस्तान ने पाणिनि की 5 हजारवीं जयंती मनाई. इसका कारण यह है कि जो हिस्सा पाकिस्तान के नाम से पहचाना जाता है, वहीं पाणिनी का जन्म हुआ था. यदि पाकिस्तान के लोग गर्व के साथ यह कह सकते हैं कि पाणिनी उनके पूर्वजों में से एक हैं, तो फिर भारत के मुसलमान (मैं उन्हें हिंदू मुसलमान कहता हूँ) पाणिनी, व्यास, वाल्मीकि, राम, कृष्ण आदि को अभिमानपूर्वक अपने महान पूर्वज क्यों नहीं मानते?
हिंदुओं में ऐसे अनेक लोग हैं, जो राम, कृष्ण आदि को ईश्वर के अवतार नहीं मानते. फिर भी वे उन्हें महापुरुष मानते हैं, अनुकरणीय मानते हैं. इसलिये मुसलमान भी यदि उन्हें अवतारी पुरुष न मानें, तो कुछ नहीं बिगड़नेवाला, परंतु क्या उन्हें राष्ट्रपुरुष नहीं माना जाना चाहिये?
हमारे धर्म और तत्त्वज्ञान की शिक्षा के अनुसार हिंदू और मुसलमान समान ही हैं. ऐसी बात नहीं कि ईश्वरीय सत्य का साक्षात्कार केवल हिंदू ही कर सकता है. अपने-अपने धर्म-मत के अनुसार कोई भी साक्षात्कार कर सकता है.
श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य का ही उदाहरण लें. यह उदाहरण, वर्तमान शंकराचार्य के गुरु का है. एक अमेरिकी व्यक्ति उनके पास आया और उसने प्रार्थना की कि उसे हिंदू बना लिया जाये. इस पर शंकराचार्य जी ने उससे पूछा- ‘वह हिंदू क्यों बनना चाहता है’ उसने उत्तर दिया कि ईसाई धर्म से उसे शांति प्राप्त नहीं हुई है. आध्यात्मिक तृष्णा भी अतृप्त ही है.
इस पर शंकराचार्य जी ने उससे कहा- ‘क्या तुमने ईसाई धर्म का प्रमाणिकतापूर्वक पालन किया है? यदि तुम इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके होगे कि ईसाई धर्म का पालन करने के बाद भी तुम्हें शांति नहीं मिली, तो मेरे पास अवश्य आओ.’
हमारा दृष्टिकोण इस तरह का है. हमारा धर्म, धर्म-परिवर्तन न करानेवाला धर्म है. धर्मांतरण तो प्रायः राजनीतिक अथवा अन्य हेतु से कराये जाते हैं. इस तरह का धर्म-परिवर्तन हमें स्वीकार नहीं है. हम कहते हैं- ‘यह सत्य है. तुम्हें जँचता हो तो स्वीकारो, अन्यथा छोड़ दो.’
दक्षिण की यात्रा के दौरान मदुरै में कुछ लोग मुझसे मिलने के लिये आये. मुस्लिम-समस्या पर वे मुझसे चर्चा कर मुसलमानों के विषय में मेरा दृष्टिकोण चाहते थे. मैंने उनसे कहा- ‘आप लोग मुझसे मिलने आये, मुझे बड़ा आनंद हुआ. हमें यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि हम सबके पूर्वज एक ही हैं. हम सब उनके वंशज हैं. आप अपने-अपने धर्मों का प्रामाणिकता से पालन करें, परंतु राष्ट्र के मामले में हम सबको एक रहना चाहिये. राष्ट्रहित के लिये बाधक सिद्ध होने वाले अधिकारों और सहूलियतों की माँग बंद होनी चाहिये. हम हिंदू हैं, इसलिये हम विशेष सहूलियतों या अधिकारों की कभी बात नहीं करते. ऐसी स्थिति में कुछ लोग यदि कहने लगें कि ‘हमें अलग होना है’, ‘हमें अलग प्रदेश चाहिये’ तो यह कतई सहन नहीं होगा.’
ऐसी बात नहीं है कि यह प्रश्न केवल हिंदू और मुसलमानों की बीच ही हो. यह समस्या तो हिंदुओं के बीच भी है. जैसे हिंदू समाज में जैन लोग हैं, तथाकथित अनुसूचित जातियाँ हैं. अनुसूचित जातियों में से कुछ लोगों ने डा. अम्बेडकर के अनुयायी बनकर बौद्ध धर्म ग्रहण किया. अब वे कहते हैं कि- ‘हम अलग हैं.’ अपने देश में अल्पसंख्यकों को कुछ विशेष राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं. इसलिये प्रत्येक गुट स्वयं को अल्पसंख्यक बताने का प्रयास कर रहा है तथा उसके आधार पर कुछ विशेष अधिकार और सहूलियतें माँग रहा है. इससे अपने देश के अनेक टुकड़े हो जायेंगे और सर्वनाश होगा. हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं. कुछ जैन-मुनि मुझसे मिले. उन्होंने कहा ‘हम हिंदू नहीं हैं. अगली जनगणना में हम स्वयं को जैन के नाम से दर्ज करायेंगे.’ मैंने कहा- ‘आप आत्मघाती सपने देख रहे हो.’ अलगाव का अर्थ है- देश का विभाजन और विभाजन का परिणाम होगा आत्मघात.
जब लोग प्रत्येक बात का विचार राजनीतिक स्वार्थ की दृष्टि से करने लगते हैं, तब अनेक भीषण समस्याएयें उत्पन्न होती हैं, किंतु इस स्वार्थ को अलग रखते ही अपना देश एकसंघ बन सकता है. फिर हम संपूर्ण विश्व की चुनौती का सामना कर सकते हैं.

डॉ. जिलानी: भौतिकतावाद और विशेषतः साम्यवाद से अपने देश के लिये खतरा पैदा हो गया है. हिंदू और मुसलमान दोनों ही ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास रखते हैं. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि दोनों मिलकर इस संकट का मुकाबला कर सकते हैं?
श्री गुरुजी: यही प्रश्न कश्मीर के सज्जन ने मुझसे किया था. उनका नाम संभवतः नाजिर अली है. अलीगढ़ में मेरे एक मित्र अधिवक्ता श्री मिश्रीलाल के निवास-स्थान पर वे मिले थे. उन्होंने कहा- ‘नास्तिकता और साम्यवाद हम सभी पर अतिक्रमण हेतु प्रयत्नशील हैं. अतः ईश्वर पर विश्वास रखनेवाले हम सभी को चाहिये कि हम सामूहिक रूप से इस खतरे का मुकाबला करें.
मैंने कहा, ‘मैं आपसे सहमत हूँ’, परंतु कठिनाई यह है कि हम सबने मानो ईश्वर की प्रतिमा के टुकड़े-टुकड़े कर डाले हैं और हरेक ने एक-एक टुकड़ा उठा लिया है. आप ईश्वर की ओर अलग दृष्टि से देखते हैं, ईसाई अलग दृष्टि से देखते हैं. बौद्ध लोग तो कहते हैं कि ईश्वर तो है ही नहीं; जो कुछ है, वह निर्वाण ही है. जैन लोग कहते हैं कि सब कुछ शून्याकार ही है. हममें से अनेक लोग राम, कृष्ण, शिव आदि के रूप में ईश्वर की उपासना करते हैं. इन सबको आप यह किस तरह कह सकेंगे कि एक ही सर्वमान्य ईश्वर को माना जाये. इसके लिये आपके पास क्या कोई उपाय है?’ मेरी यह धारणा थी कि सूफी ईश्वरवादी और विचारशील हुआ करते हैं, परंतु उस सूफी सज्जन ने जो उत्तर दिया, उसे सुनकर आप आश्चर्यचकित हो जायेंगे. उन्होंने कहा- ‘तो फिर आप सब लोग इस्लाम ही क्यों नहीं स्वीकार कर लेते?’
मैंने कहा- ‘फिर तो कुछ लोग कहेंगे कि ईसाई क्यों नहीं बन जाते? मेरे धर्म के प्रति मेरी निष्ठा है, इसलिये मैं यदि आपसे कहूं कि आप हिंदू क्यों नहीं बन जाते, तब? याने समस्या वैसी की वैसी ही रह गई. वह कभी हल नहीं होगी.
इस पर उन्होंने मुझसे पूछा कि आपकी क्या राय है? मैंने बताया कि सभी अपने-अपने धर्म का पालन करें. एक ऐसा सर्वसारभूत तत्वज्ञान है, जो केवल हिंदुओं का या केवल मुसलमानों का ही हो, ऐसी बात नहीं है. इस तत्त्वज्ञान को आप अद्वैत कहें या और कुछ. यह तत्त्वज्ञान कहता है कि एक एकमेवाद्वितीय शक्ति है, वही सत्य है, वही आनन्द है, वही सृजन, रक्षण और संहार करती है. अपनी ईश्वर की कल्पना उसी सत्य का सीमित अंश है. अंतिम सत्य का यह मूलभूत रूप किसी धर्म-विशेष का नहीं, अपितु सर्वमान्य है. यही रूप हम सबको एकत्रित कर सकता है. सभी धर्म वस्तुतः ईश्वर की ओर ही उन्मुख करते हैं. अतः यह सत्य आप क्यों स्वीकार नहीं करते कि मुसलमानों, ईसाईयों और हिंदुओं का परमात्मा एक ही है और हम सब उसके भक्त हैं. एक सूफी के रूप में तो आपको इसे स्वीकार करना चाहिये.
इस पर उनके पास कोई उत्तर नहीं था. दुर्भाग्य से हमारी बातचीत यहीं समाप्त हो गई.
डॉ. जिलानी: हिंदू और मुसलमानों के बीच आपसी सद्भावना बहुत है, फिर भी समय-समय पर छोटे-बड़े झगड़े होते ही रहते हैं. इन झगड़ों को मिटाने के लिये आपकी राय में क्या किया जाना चाहिये?
श्रीगुरुजी: आप अपने लेखों में इन झगड़ों का एक कारण हमेशा बताते हैं. वह कारण है गाय. दुर्भाग्य से अपने लोग और राजनीतिक नेता भी इस कारण का विचार नहीं करते. परिणामतः देश के बहुसंख्यकों में कटुता की भावना उत्पन्न होती है. मेरी समझ में नहीं आता कि गोहत्या के विषय में इतना आग्रह क्यों है? इसके लिये कोई कारण दिखाई नहीं देता. इस्लाम-धर्म गोहत्या का आदेश नहीं देता. पुराने जमाने में हिंदुओं को अपमानित करने का वह एक तरीका रहा होगा. अब वह क्यों चलना चाहिये?
इसी प्रकार की अनेक छोटी-बड़ी बातें हैं. आपस के पर्वों-त्यौहारों में हम क्यों सम्मिलित न हों? होलिकोत्सव समाज के सभी स्तरों के लोगों को अत्यंत उल्लासयुक्त वातावरण में एकत्रित करनेवाला त्यौहार है. मान लीजिये कि इस त्यौहार  के समय किसी मुस्लिम बंधु पर कोई रंग उड़ा देता है, तो इतने मात्र से क्या कुरान की आज्ञाओं का उल्लंघन हो जाता है? इन बातों की ओर एक सामाजिक व्यवहार के रूप मे देखा जाना चाहिये. मैं आप पर रंग छिड़कूँ, आप मुझ पर छि़ड़कें. हमारे लोग तो कितने ही वर्षों से मोहर्रम के सभी कार्यक्रमों में सम्मिलित होते आ रहे हैं. इतना हीं नहीं तो अजमेर के उर्स जैसे कितने ही उत्सवों-त्यौहारों में मुसलमानों के साथ हमारे लोग भी उत्साहपूर्वक सम्मिलित होते हैं. किंतु हमारी सत्यनारायण की पूजा में यदि कुछ मुसलमान बंधुओं को हम आमंत्रित करें तो क्या होगा? आपको विदित होगा कि द्रमुक के लोग अपने मंत्रिमंडल के एक मुस्लिम मंत्री को रामेश्वर के मंदिर में ले गये. मंदिर के अधिकारियों, पुजारियों और अन्य लोगों ने उक्त मंत्री का यथोचित मान-सम्मान किया, किंतु उसे जब मंदिर का प्रसाद दिया गया, तो उसने उसे फेंक दिया. प्रसाद ग्रहण करने मात्र से तो वह धर्मभ्रष्ट होनेवाला नहीं था. इसी तरह की छोटी-छोटी बातें हैं. अतः पारस्परिक आदर की भावना उत्पन्न की जानी चाहिये.

हमें जो वृत्ति अभिप्रेत है, वह सहिष्णुता मात्र नहीं है. अन्य लोग जो कुछ करते हैं, उसे सहन करना सहिष्णुता है. परंतु अन्य लोग जो कुछ करते हों, उसके प्रति आदर-भाव रखना सहिष्णुता से ऊँची बात है. इसी वृत्ति, इसी भावना को प्राधान्य दिया जाना चाहिये. हमें सबके विषय में आदर है. यही मार्ग मानवता के लिये हितकारक है. हमारा वाद सहिष्णुतावाद नहीं, अपितु सम्मानवाद है. दूसरों के मत का आदर करना हम सीखें तो सहिष्णुता स्वयंमेव चली आयेगी.
डॉ. जिलानी: हिंदू और मुसलमानों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के कार्य के लिये आगे आने की योग्यता किसमें है- राजनीतिक नेता में, शिक्षाशास्त्री में या धार्मिक नेता में?
श्रीगुरुजी: इस मामले में राजनीतिज्ञ का क्रम तो सबसे अंत में लगता है. धार्मिक नेताओं के विषय में भी यही कहना होगा. आज अपने देश में दोनों ही जातियों के धार्मिक नेता अत्यंत संकुचित मनोवृत्ति के हैं. इस काम के लिये नितांत अलग प्रकार के लोगों की आवश्यकता है. जो लोग धार्मिक तो हों, किंतु राजनीतिक नेतागिरी न करते हों और जिनके मन में समग्र राष्ट्र का विचार सदैव जागृत रहता हो. धर्म के अधिष्ठान के बिना कुछ भी हासिल नहीं होगा. धार्मिकता होनी ही चाहिए. रामकृष्ण मिशन को ही लें. यह आश्रम व्यापक और सर्वसमावेशक धर्म-प्रचार का कार्य कर रहा है. अतः आज तो इसी दृष्टिकोण और वृत्ति की आवश्यकता है कि ईश्वरोपासनाविषयक विभिन्न श्रद्धाओं को नष्ट न कर हम उनका आदर करें, उन्हें टिकाये रखें और उन्हें वृद्धिगत होने दें.
राजनीतिक नेताओं के जो खेल चलते हैं, उन्हीं से भेदभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है. जातियों, पंथो पर तो वे जोर देते हैं, साथ ही भाषा, हिंदू-मुस्लिम आदि भेद भी वे पैदा करते हैं. परिणामतः अपनी समस्यायें अधिकाधिक जटिल होती जा रही हैं. जाति-संबंधी समस्या के मामले में तो राजनीतिक नेता ही वास्तविक खलनायक हैं. दुर्भाग्य से राजनीतिक नेता ही आज जनता का नेता बन बैठा है, जबकि चाहिये तो यह था कि सच्चे, विद्वान, सुशील और ईश्वर के परमभक्त महापुरुष जनता के नेता बनते. परंतु इस दृष्टि से आज उनका कोई स्थान ही नहीं है. इसके विपरीत नेतृत्व आज राजनीतिक नेताओं के हाथों में है. जिनके हाथों में नेतृत्व है, वे राजनीतिक पशु बन गये हैं. अतः हमें लोगों को जागृत करना चाहिये.

दो दिन पूर्व ही मैंने प्रयाग में कहा है कि लोगों को राजनीतिक नेताओं के पीछे नहीं जाना चाहिये, अपितु ऐसे स्तपुरुषों का अनुकरण करें, जो परमात्मा के चरणों में लीन हैं, जिनमें चारित्र्य है और जिनकी दृष्टि विशाल है.
डॉ. जिलानी: क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि जातीय सामंजस्य-निर्माण का उत्तरदायित्व बहुसंख्यक समाज के रूप में हिंदुओं पर है?
श्रीगुरुजी: हाँ. मुझे यही लगता है, परंतु कुछ कठिनाइयों का विचार किया जाना चाहिये. अपने नेतागण संपूर्ण दोष हिंदुओं पर लादकर मुसलमानों को दोषमुक्त कर देते हैं. इसके कारण जातीय उपद्रव करने के लिये अल्पसंख्यक समाज, याने मुस्लिमों को सब प्रकार का प्रोत्साहन मिलता है. इसलिये हमारा कहना है कि इस मामले में दोनों को अपनी जिम्मेदारियों का पालन करना चाहिये.
डॉ. जिलानी: आपकी राय में आपसी सामंजस्य की दिशा में तत्काल कौन से कदम उठाये जाने चाहिये?
श्रीगुरुजी: इस तरह से एकदम कुछ कहना बहुत ही कठिन है, फिर भी सोचा जा सकता है. व्यापक पैमाने पर धर्म की यथार्थ शिक्षा देना एक उपाय हो सकता है. राजनीतिक नेताओं द्वारा समर्थित आज जैसी धर्महीन शिक्षा नहीं, अपितु सच्चे अर्थों में धर्म-शिक्षा लोगों को इस्लाम व हिंदू धर्म का ज्ञान कराये. सभी धर्म मनुष्य को महान, पवित्र और मंगलमय बनने की शिक्षा देते हैं. यह लोगों को सिखाया जाये.
दूसरा उपाय यह हो सकता है कि जैसा हमारा इतिहास है, वैसा ही हम पढ़ायें. आज जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह विकृत रूप में पढ़ाया जाता है. मुस्लिमों ने इस देश पर आक्रमण किया हो तो वह हम स्पष्ट रूप से बतायें, परंतु साथ ही यह भी बतायें कि वह आक्रमणकारी भूतकालीन हैं और विदेशियों ने किया है. मुसलमान यह कहें कि वे इस देश के मुसलमान हैं और ये आक्रमण उनकी विरासत नहीं हैं. परन्तु जो सही है, उसे पढ़ाने के स्थान पर जो असत्य है, विकृत है, वही आज पढ़ाया जाता है. सत्य बहुत दिनों तक दबाकर नहीं रखा जा सकता. अंततः वह सामने आता है और तब उससे लोगों में दुर्भावना निर्माण होती है. इसलिये मैं कहता हूं इतिहास जैसा है वैसा ही पढ़ाया जाये. अफजलखाँ को शिवाजी ने मारा है, तो वैसा ही बताओ. कहो कि एक विदेशी आक्रामक और एक राष्ट्रीय नेता के तनावपूर्ण संबंधों के कारण यह घटना हुई. यह भी बतायें कि हम सब एक ही राष्ट्र हैं, इसलिये हमारी परंपरा अफजलखाँ की नहीं है. परन्तु यह कहने की हिम्मत कोई नहीं करता. इतिहास के विकृतिकरण को मैं अनेक बार धिक्कार चुका हूँ और आज भी उसे धिक्कारता हूँ.
डॉ. जिलानी: भारतीयकरण पर बहुत चर्चा हुई, भ्रम भी बहुत निर्माण हुये. क्या आप बता सकेंगे कि ये भ्रम कैसे दूर किये जा सकेंगे?
श्री गुरुजी: भारतीयकरण की घोषणा जनसंघ द्वारा की गई, किंतु इस मामले में संभ्रम क्यों होना चाहिये? भारतीयकरण का अर्थ सबको हिंदू बनाना तो है नहीं.
हम सभी को यह सत्य समझ लेना चाहिये कि हम इसी भूमि के पुत्र हैं. अतः इस विषय में अपनी निष्ठा अविचल रहना अनिवार्य है. हम सब एक ही मानवसमूह के अंग हैं, हम सबके पूर्वज एक ही हैं, इसलिये हम सबकी आकांक्षायें भी एक समान हैं- इसे समझना ही सही अर्थों में भारतीयकरण है.
भारतीयकरण का यह अर्थ नहीं कि कोई अपनी पूजा-पद्धति त्याग दे. यह बात हमने कभी नहीं कही और कभी कहेंगे भी नहीं. हमारी तो यह मान्यता है कि उपासना की एक ही पद्धति संपूर्ण मानव जाति के लिये सुविधाजनक नहीं.
डॉ. जिलानी: आपकी बात सही है. बिलकुल सौ फीसदी सही है. अतः इस सपष्टीकरण के लिये मैं आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ.

श्रीगुरुजी: फिर भी मुझे संदेह है कि सब बातें मैं स्पष्ट कर सका हूँ या नहीं.
डॉ. जिलानी: कोई बात नहीं. आपने अपनी ओर से बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया है. कोई भी विचारशील और भला आदमी आपसे असहमत नहीं होगा. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि अपने देश का जातीय बेसुरापन समाप्त करने का उपाय ढूँढने में आपको सहयोग दे सकें, ऐसे मुस्लिम नेताओं की और आपकी बैठक आयोजित करने का अब समय आ गया है? ऐसे नेताओं से भेंट करना क्या आप पसंद करेंगे?
श्रीगुरुजी: केवल पसंद ही नहीं करूँगा, ऐसी भेंट का मैं स्वागत करूँगा.

नारद दर्शन से आयेगा देश में सुराज : नन्दकुमार जी

नई दिल्ली. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख श्री जे नन्द कुमार जी ने कहा है कि अगर देश में वास्तविक अर्थों में सुराज लाना है तो देवर्षि नारद के उज्जवल एवं स्पष्ट दर्शन के अनुरूप अपनी कार्यप्रणाली निश्चित करनी ही पड़ेगी, क्योंकि परम ज्ञानी नारद का दर्शन अब भी सुसंगत है.
दिल्ली में नारद जयंती एवं पत्रकार सम्मान समारोह में मुख्य वक्ता के तौर पर अपने ओजस्वी उद्बोधन में श्री नन्द कुमार जी ने भलीभांति सूचित-अवगत नागरिकों को किसी भी राष्ट्र की शक्ति बताया और नारद–युधिष्ठिर संवाद के हर बिंदु पर गहराई से अध्ययन व शोध करने की आवश्यकता पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि इसकी सहायता से भविष्य में आगे बढ़ने की निश्चित रूप से दिशा मिलती है. उन्होंने यह भी कहा कि सभी क्षेत्रों में चाहे शिक्षा हो या उद्योग, इतिहास हो या अर्थशास्त्र, सब मोर्चों पर विदेशी नीतियाँ ही चलती हैं. अभी तक अपने नेतागण भारत का अपना मौलिक ढांचा खड़ा करने के लिये तैयार नहीं दिखाई दिये. अपने इतिहास एवं परम्पराओं से प्रेरणा पाकर अग्रसर होने को तैयार नहीं. दूसरी ओर, नारद जी ने सुराज के विषय में युधिष्ठिर से 123 सवाल पूछे. सबसे रोचक बात यह है कि युधिष्ठिर ने क्रम से उत्तर देने की जगह सब का उत्तर एक साथ दिया और यह सिद्ध कर दिया कि राजा ने सुशासन की दृष्टि से प्रत्येक पग नारद जी के आदेश व उपदेश के आधार पर ही उठाया है.
श्री नन्द कुमार जी ने कहा कि एक आदर्श पत्रकार में जो कुछ गुण चाहिये, वे सब नारद जी में दिखाई देते हैं. सबसे पहले स्थिति को गहराई से समझना. एक पत्रकार में कृत्यता एवं समग्रता चाहिये. सूचना की समीक्षा करने की सामर्थ्य भी चाहिये. इसके साथ सम्बंधित समस्त सूचनायें संकलित करना और उनका अध्ययन करना आवश्यक है. साथ ही अनुवर्ती घटनाक्रमों के विषय में कल्पना करने की क्षमता (पूर्वानुमान). सबसे महत्वपूर्ण पहलू, प्रस्तुत करने की शैली और ढंग है. इन सभी तथ्यों को मानकर एक पत्रकार को उपयुक्त रीति एवं सटीक शब्दों के साथ अपने कार्य में आगे बढ़ना चाहिये.
सह प्रचार प्रमुख ने संवाद संकलन को पवित्र कार्य मानने का परामर्श देते हुए कहा सर संघचालक पूज्य मोहन जी भागवत के पिछले वर्ष इंदौर के उद्बोधन में पश्चिमी अपसंस्कृति की आलोचना को गलत ढंग से प्रचारित कर कुछ समाचार पत्रों द्वारा बलात्कार से जोड़ा गया. यह गलत प्रमाणित होने पर खेद प्रकट या तो किया ही नहीं गया, या किया गया तो बहुत सामान्य से समाचार के रूप में. उन्होंने कहा कि रेटिंग या सर्कुलेशन बढ़ाने के लिये अवांछित युक्तियां  अपनाना अच्छा नहीं है. साथ ही, एक पत्रकार को किसी भी हालत में, स्वार्थवश अथवा पैसे के लालच में हीन युक्तियों (डर्टी ट्रिक्स) से बचना चाहिये.
पैन केक इंटलेक्चुअलिज्म से भी उन्होंने बचने की सलाह देते हुए कहा कि अप्रमाणित समाचारों का बिना समुचित पुष्टि के प्रकाशित या प्रसारित नहीं किया जाना चाहिये. इस प्रकार की टेबिल न्यूज द्वारा अच्छे व्यक्तियों को घटिया प्रमाणित करना तथा बुराई का महिमामंडन किया जाता है. कश्मीर में शहीद कैप्टिन मनीष पीताम्बरे का उदाहरण देते हुए उन्होंने केवल रेटिंग बढ़ाने  पर ही ध्यान और राष्ट्रहित परक समाचारों को कोई महत्व नहीं देने की प्रवृत्ति को छोड़ने पर जोर दिया. कैप्टिन पीताम्बरे ने आतंकियों से लोहा लेते हुए बलिदान दिया. चार आतंकवादी मारे भी गये. किन्तु इतने महत्वपूर्ण समाचार को न्यूजचैनलों में स्थान नहीं मिला, उसके स्थान पर दिन भर संजय दत्त छाया रहा.
समारोह को मुख्य अतिथि के रूप में सम्बोधित करते हुए न्यू इंडियन एक्सप्रेस के सम्पादकीय निदेशक श्री प्रभु चावला ने कहा कि राष्ट्रवादी पत्रकारिता के बिना भारत राष्ट्रवाद से अनुप्राणित नहीं हो सकता. उन्होंने केन्द्र में हुए वर्तमान सत्ता परिवर्तन को देश के लिये शुभ एवं आशाजनक बताते हुए कहा कि यह ध्यान रखना होगा कि सिर्फ इससे उद्देश्य को पूरी तरह हासिल नहीं किया जा सकता. स्वयंसेवक होने पर गौरव का अनुभव करते हुए श्री चावला ने कहा कि राष्ट्रवादी पत्रकारिता गंभीर चुनौतियों और समस्याओं से जूझ रही है. ऐसी स्थिति में संघ को राष्ट्रवादी पत्रकारिता के विकास के लिये आगे आना होगा. उन्होंने सराहना करते हुए कहा कि विश्व  संवाद केन्द्र नारद जयंती समारोहों की राष्ट्रव्यापी आयोजन श्रृंखला के माध्यम से पहले ही इस दिशा में कदम उठा चुका है.
इस अवसर पर तीन राष्ट्रवादी पत्रकारों को उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिये सम्मानित किया गया. डिफेंस मॉनिटर के सम्पादक श्री सुशील शर्मा, सोशल मीडिया के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिये श्री मोती लाल जी गुप्ता और वरिष्ठ पत्रकार श्री राकेश शर्मा को शॉल, पुष्प गुच्छ, स्मृति चिन्ह और हार पहनाकर सम्मानित किया गया. श्री सुशील शर्मा जी ने अपने करियर की शुरुआत दैनिक हिन्दुस्तान से की थी, हिन्दुस्तान से त्यागपत्र देने के बाद सुशील जी ने अपनी पत्रिका ‘डिफेंस मॉनिटर’ का प्रकाशन आरम्भ किया. यह रक्षा, सुरक्षा, राजनय, एरोस्पेस आदि विषयों पर हिन्दी में अपनी तरह की पहली पत्रिका है. दूरदर्शन के लिये उन्होंने 36 डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाई हैं, जिनमें पाकिस्तान की दुर्दशा को उजागर करने वाली आईना, हकीकते पाकिस्तान तथा 1971 के युद्ध पर ‘71 की कहानी, वीरों की जुबानी’ . श्री सुशील वर्तमान में समाचार पोर्टल ‘भारत डिफेंस कवच’ का भी संपादन कर रहे हैं.
श्री मोती लाल गुप्ता चार वर्ष पूर्व यूरोप, कनाडा व एशिया के 35 देशों में फैले विस्तृत करोबार से संन्यास लेकर स्वदेश लौटने पर पूरी तरह सामाजिक कार्यों में लग गये. वे राष्ट्रीय, सामाजिक एवं धार्मिक विषयों पर प्रतिदिन आठ हजार ईमेल भेज कर भारतीय मूल्यों व परम्पराओं से अवगत कराने का काम कर रहे हैं. उन्होंने सम्मान के प्रति आभार व्यक्त करते हुए निज भाषा, संस्कृति और देश की समृद्ध सम्पदा पर अभिमान करने का परामर्श दिया.
वरिष्ठ पत्रकार श्री राकेश शर्मा जी का विभिन्न भारतीय मीडिया, प्रिंट उद्योग, अखबारों की गतिविधियों का 25 वर्षों का गहन अध्ययन और अनुभव है. उन्होंने स्वदेश समाचार पत्र में 1988 से 1995 तक विशेष संवादाता तथा क्षेत्रीय प्रबंधक का दायित्व निभाया.
समारोह में अध्यक्षीय भाषण देते हुए केन्द्र के अध्यक्ष श्री अशोक सचदेवा ने पत्रकारों से नारद जी की भूमिका निभाने का आह्वान किया. उन्होंने कहा कि नारद जी ईश्वरत्व से पहचान का और उनकी ओर आगे बढ़ने का रास्ता बताते हैं, जो वास्तव में मनुष्य जीवन का लक्ष्य है. आज यह दायित्व हमारे पत्रकार मित्रों का है. मेरा विश्वास है कि इस आयोजन से निश्चित ही हमारी गौरवशाली अतीत की स्मृतियां ताजा होंगीं, जिनसे हमारी सांस्कृतिक परम्परा को अग्रसर होने में गति मिलेगी. कार्यक्रम का कुशल संचालन केन्द्र के सचिव श्री वागीश ईसर ने किया.
समारोह में संघ के उत्तर क्षेत्र के प्रचार प्रमुख श्री नरेन्द्र ठाकुर, संघ के दिल्ली प्रांत के प्रचार प्रमुख श्री राजीव तुली, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उत्तर क्षेत्र के सह कार्यवाह श्री विजय कुमार जी, संघ के विश्व विभाग के श्री अनिल वर्तक जी, हिन्दुस्थान समाचार के श्री लक्ष्मीनारायण भाला जी, राजनेता श्री सुनील शास्त्री जी, हरियाणा के प्रान्त प्रचार प्रमुख श्री अनिल जी की उपस्थिति उल्लेखनीय थी

देवर्षि नारद : पत्रकारिता के पितृ पुरुष - अजहर हाशमी

नाम सुनते ही इधर-उधर विचरण करने वाले व्यक्तित्व की अनुभूति होती है। आम धारणा यही है कि देवर्षि नारद ऐसी 'विभूति' हैं जो 'इधर की उधर' करते रहते हैं। प्रायः नारद को चुगलखोर के रूप में जानते हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। मेरा मत है कि नारद इधर-उधर घूमते हुए संवाद-संकलन का कार्य करते हैं। इस प्रकार एक घुमक्कड़, किंतु सही और सक्रिय-सार्थक संवाददाता की भूमिका निभाते हैं और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहूं तो यह कि देवर्षि ही नहीं दिव्य पत्रकार भी हैं नारद।

मेरा यह भी मत है कि महर्षि वेदव्यास विश्व के पहले संपादक हैं- क्योंकि उन्होंने वेदों का संपादन करके यह निश्चित किया कि कौन-सा मंत्र किस वेद में जाएगा अर्थात्‌ ऋग्वेद में कौन-से मंत्र होंगे और यजुर्वेद में कौन से, सामवेद में कौन से मंत्र होंगे तथा अर्थर्ववेद में कौन से? वेदों के श्रेणीकरण और सूचीकरण का कार्य भी वेदव्यास ने किया और वेदों के संपादन का यह कार्य महाभारत के लेखन से भी अधिक कठिन और महत्वपूर्ण था।

देवर्षि नारद दुनिया के प्रथम पत्रकार या पहले संवाददाता हैं, क्योंकि देवर्षि नारद ने इस लोक से उस लोक में परिक्रमा करते हुए संवादों के आदान-प्रदान द्वारा पत्रकारिता का प्रारंभ किया। इस प्रकार देवर्षि नारद पत्रकारिता के प्रथम पुरुष/पुरोधा पुरुष/हैं।

जो इधर से उधर घूमते हैं तो संवाद का सेतु ही बनाते हैं। जब सेतु बनाया जाता है तो दो बिंदुओं या दो सिरों को मिलाने का कार्य किया जाता है। दरअसल देवर्षि नारद भी इधर और उधर के दो बिंदुओं के बीच संवाद का सेतु स्थापित करने के लिए संवाददाता का कार्य करते हैं।

इस प्रकार नारद संवाद का सेतु जोड़ने का कार्य करते हैं तोड़ने का नहीं। परंतु चूंकि अपने ही पिता ब्रह्मा के शाप के वशीभूत (देवर्षि नारद को ब्रह्मा का मानस-पुत्र माना जाता है। ब्रह्मा के कार्य में पैदा होते ही नारद ने कुछ बाधा उपस्थित की। अतः उन्होंने नारद को एक स्थान पर स्थित न रहकर घूमते रहने का शाप दे दिया।)

ND
नारद को इधर से उधर (इस लोक से उस लोक में) घूमना पड़ता है तो इसमें संवाद की जो अदला-बदली हो जाती है उसे लोगों ने नकारात्मक दृष्टि से देखा और नारद को 'भिड़ाने वाले' या 'कलह कराने वाले' किरदार के फ्रेम में फिट कर दिया। नारद की छवि को इस प्रकार प्रस्तुत किया कि वे 'चोर को कहते हैं कि चोरी कर और साहूकार को कहते हैं कि जाग।' लेकिन यह सच नहीं है।

सच तो यह है कि नारद घूमते हुए सीधे संवाद कर रहे हैं और सीधे संवाद भेज रहे हैं इसलिए नारद सतत सजग-सक्रिय हैं यानी नारद का संवाद 'टेबल-रिपोर्टिंग' नहीं 'स्पॉट-रिपोर्टिंग' है इसलिए उसमें जीवंतता है।

मेरे मत में पत्रकारिता, पाखंड की पीठ पर चुनौती का चाबुक है और देवर्षि नारद इधर-उधर घूमते हुए जो पाखंड देखते हैं उसे खंड-खंड करने के लिए ही तो लोकमंगल की दृष्टि से संवाद करते हैं।

से लेकर तक नारद की पत्रकारिता लोकमंगल की ही पत्रकारिता और लोकहित का ही संवाद-संकलन है। उनके 'इधर-उधर' संवाद करने से जब राम का रावण से या कृष्ण का कंस से दंगल होता है तभी तो लोक का मंगल होता है। अतः मेरे मत में देवर्षि नारद दिव्य पत्रकार के रूप में लोकमंडल के संवाददाता हैं।

देवर्षि नारद पत्रकारों के आदर्श प्रेरणास्रोत

नारद शब्द की जो परिभाषा हमारे ऋषियों ने की है, उसके अनुसार –
नारं परमात्म विषयकं ज्ञानं ददाति नारदः
नारं नरसमूहम दयते पालयति
ज्ञान दानेनेति नारदः
ददाति नारं ज्ञानं च बालकेभ्यश्च बालकः
जातिस्मरो महाज्ञानी तेनायं नारदभिदः
अर्थात सर्वोच्च या परमज्ञान देने वाले का नाम है नारद. नारं शब्द का अर्थ दो तरह से प्रस्तुत कर सकते हैं. एक तो सामान्य अर्थ है परमज्ञान, और दूसरा विशेष अर्थ है नर संबंधी ज्ञान. दोनों ही अर्थों से वे परमज्ञान के संरक्षक अर्थात स्वामी हैं. नारद जी के ज्ञान का दायरा कितना विस्तृत था, यह इस प्रसंग से परिलक्षित होता है कि जब वे अपने गुरू जी के पास ज्ञान प्राप्ति के लिये पहुंचे, तब गुरू जी ने उनकी प्रारम्भिक जानकारी के विषय में प्रश्न किया. नारद जी ने विनम्रता से एक लम्बी सूची गुरूजी के सम्मुख रख दी.
रामायण और महाभारत दोनों के इतिहास लेखन में नारद जी की अनूठी भूमिका एवं योगदान का वर्णन मिलता है. प्रथम तो महर्षि वाल्मीकि को रामायण लिखने की प्रेरणा तथा दूसरी धर्मराज युधिष्ठिर को राजनीति समाजनीति की शिक्षा.
एक दिन वाल्मीकि आश्रम में नारद जी पहुँच गये. वाल्मीकि सही में किसी परिपूर्ण मानव की तलाश में थे. ऐसा माना जाता है कि परिपूर्ण मानव अर्थात जिसमें 16 गुण हों. किन्तु नारद जी ने 57 गुण वाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र महाप्रभु की कथा उनके सम्मुख प्रस्तुत की;  जिसे सुनकर वाल्मीकि भाव-विभोर हो गये, अत्यंत प्रभावित हो गये. वाल्मीकि जी ने नारद जी को दंडवत प्रणाम किया और अपने शिष्य भारद्वाज के साथ तमसा नदी के लिये प्रस्थान किया. स्वच्छ शांत और पवित्र वातावरण में वाल्मीकि जब विचारों में लीन थे, तभी एक बहेलिये ने काम क्रीड़ा में रत क्रोंच पक्षी के जोड़े में से एक को तीर चलाकर मार डाला. अपने प्रेमी की मृत्यु को देखकर दूसरे पक्षी ने भी विरह में प्राण त्याग दिये . आनंद की पराकाष्ठा से असहनीय दुःख के पाताल में गिर गये वाल्मीकि. शांत एवं प्रसन्नचित्त वाल्मीकि क्रोध से भर गये . शोकार्त वाल्मीकि के मुख से अपने आप कुछ शब्द निकले. ‘मा निषाद प्रतिष्ठां..’ हे ! निषाद तुमने निर्ममता पूर्वक जो यह क्रूर एवं जघन्य कृत्य किया है, अतः तुम्हारा जीवन शाश्वत नहीं रहेगा, तुम अल्पायु हो जाओगे. उनके मुख से निकला हुआ वह श्लोक ही सृष्टि का पहला काव्य था, ऐसा कहा जाता है . स्वयं वाल्मीकि भी चमत्कृत हो गये. उनको भी समझ नहीं आया कि उनके मुख से यह क्या निकला और क्यों निकला? निषाद तो उसी समय भस्मीभूत हो गया. अतः उन्होंने अपने शिष्य से पूछा कि यह सब क्या है ? उनकी वह जिज्ञासा भी काव्य रूप में ही प्रकट हुई .
पाद्बद्धोSक्षर समस्तंत्री लय समन्वित
शोकार्त्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यतः .
इतनी क्रमबद्ध पंक्तियाँ एवं शब्द, वीणा की तंत्री में से निकलने वाली स्वरलहरी के समान लयबद्ध होकर कैसे निकले ? क्या शोक से भरे मन से निकलने वाले शब्दों का सार ही श्लोक कहलाता है ?
संध्यावंदन कर भारी मन से वे आश्रम वापस लौटे . वहां उनके सम्मुख स्वयं ब्रह्मदेव प्रकट हुये. ब्रह्मदेव ने उन्हें आदेश दिया कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जो कथा नारद जी ने उन्हें सुनाई थी, उसे इतिहास के रूप में लिखो. लिखने की शैली वही हो,जो “मा निषाद……” में इस्तेमाल की गई थी. वाल्मीकि ने ब्रह्मा जी के आदेशानुसार नारद जी द्वारा दी गई विषय वस्तु पर रामायण की रचना की.
उस पूरे इतिहास में नारद जी कई बार प्रकट होते रहते हैं. जब जब कहानी के प्रवाह में गंभीर मोड़ आते हैं, उस समय धर्म की परिभाषा बताने एवं मार्गदर्शन करने नारद जी उपस्थित होते हैं. वे पात्रों के मन को इधर-उधर भटकने नहीं देते. सभी पुराणों में नारद जी की भूमिका ऐसी ही रहती है. धर्म की व्याख्या करने की असाधारण योग्यता और सटीक ढंग से प्रस्तुत करने की अनुपम शैली, यही थी नारद जी की सबसे बड़ी विशेषता.
इसी प्रकार महाभारत देखिये. ऐसा माना जाता है कि धर्मराज के साथ उनका संवाद एक प्रकार से सुराज की कार्यपद्धति का आश्चर्यजनक उदाहरण है. और यह है भी सच कि वह सोद्देश्य संवाद विश्व के सब सत्ताधारियों के लये एक सार्वकालिक गीता है.
महाराजा युधिष्ठिर की अद्वितीय राजसभा में देवर्षि नारद मुनि ने प्रवेश किया. अतिथि सत्कार और सम्मान सब होने के बाद नारद जी ने पहले पुरुषार्थ के विषय में उपदेश दिया. धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का प्राधान्य, उन्हें पाने की विधि एवं प्रयोग की जानकारी विस्तृत ढंग से मुनि ने राजा सहित सबको सिखाई. ज्ञानोपदेश का यह तरीका एक प्रकार की प्रश्नोत्तरी के रूप में था. अंग्रेजी में इसको catechism कहते हैं, अर्थात पूर्व निर्धारित सवालों का उत्तर देने की शैली. एक राज्यकर्ता के दायित्वों की सम्पूर्ण सूची है यह प्रश्नोत्तरी. नारद जी ने धर्म संहिता, क़ानून संहिता एवं राज्य की जिम्मेदारियों से सम्बंधित जो 123 सवाल उस समय उठाये, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं. एक प्रकार से ज्यादा प्रासंगिक हैं ऐसा कहा जा सकता है.
हम सबको गांधीजी की रामराज्य की कल्पना के विषय में मालूम है. उस कल्पना के मूर्तरूप धर्मपुत्र के सम्मुख नारद जी द्वारा रखे गए विस्तृत दर्शन. राज्य दर्शन, राज, राज्य, सत्तानीति, दायित्व एवं जिम्मेदारियां, सावधानियां सब इस दर्शन में समाहित है. उन्होंने बताया कि दायित्व के दो पहलू हैं. एक शुचिता संबंधी और दूसरा वैधानिक. नारद जी के वे उपदेश मात्र भौतिक प्रगति या सर्वसाधारण जीवन की मामूली बातों को नियमन करने वाला सूत्र नहीं हैं, बल्कि यह कहा जा सकता है कि तदनुसार जीवन बिताने वाला व्यक्ति आध्यात्मिकता के शीर्ष शिखर पर पहुंचेगा.
सुराज न केवल वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बल्कि सार्वकालिक सुसंगत व प्रासंगिक भी है. आज की वास्तविकता यह है कि तथाकथित लोकतांत्रिक सत्ता से जुड़ी हुई संस्था कहो या व्यवस्था कहो, सब आम जनता की पहुँच से परे है. दूसरी ओर ढोल पीटा जाता है कि सब कुछ आमजनता के लिये है. सत्यता, निष्ठा एवं मूल्यों का कार्यप्रणाली में कोई स्थान नहीं है. सभी स्वार्थ और कुटिलता के सहारे राज्य करते हैं. हमारी समस्याओं के लिये विदेशियों को दोषी ठहराने से कोई लाभ नहीं .
आज की स्थिति क्या है ? अंग्रेजों ने अपनी सत्ता अबाधित चलाने के लिये जो व्यवस्था, ढांचा एवं कार्य प्रणाली बनाई, उसको स्वतंत्र भारत में भी बेशर्मी से ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है. स्वतंत्र का सही मतलब समझने में हम पूरी तरह नाकाम रहे हैं. स्व – तंत्र माने मात्र आजादी नहीं “स्व” के आधार पर तंत्र चला सकें, उस स्थिति को ही स्वतंत्र कह सकते हैं. अन्यों के तंत्र के आधार पर चलने वाली सत्ता तो वस्तुत: परतंत्रता है. आज की स्थिति में तो हम स्वतंत्र नहीं हैं. प्रत्येक विभाग में विदेशी तत्वों द्वारा निर्मित क़ानूनों, सिद्धांतों एवं नीतियों के आधार पर ही काम हो रहा है. वे उसी प्रकार विद्यमान हैं, मानो आज भी विदेशी ताकतों के हाथ में कमान हो. पदों के नाम बदलने तक की हिम्मत सत्ताधारियों ने अभी तक नहीं दिखाई है. उदाहरणार्थ एक जिले का सर्वोच्च लोक सेवक कौन है ? हमने आईसीएस को आईएस बनाया है, लेकिन कलेक्टर का नाम नहीं बदला. क्या मतलब है कलेक्टर शब्द का ? कलेक्टर गज वन हू कलेक्ट्स- जो संग्रह करे वह कलेक्टर. क्या कलेक्ट करने वाला? अंग्रेजों के जमाने में उन्होंने अपने भरोसेमंद चुने हुए लोगों को प्रत्येक जिले में अपने लिये राजस्व संग्रह के लिये कलेक्टर नियुक्त किये. मतलब अंग्रेजों ने उन्हें सबसे ज्यादा पैसा आम जनता से इकट्ठा करने के लिये नौकरी दी. कमिश्नर की भी यही स्थिति है .
अभी देखिये, सब क्षेत्रों में चाहे शिक्षा हो या उद्योग, इतिहास हो या अर्थशास्त्र, सब मोर्चों पर विदेशी नीतियाँ ही चलती हैं. अपने नेतागण भारत का अपना मौलिक ढांचा खड़ा करने के लिये तैयार नहीं. अपने इतिहास एवं परम्पराओं से प्रेरणा पाकर अग्रसर होने को तैयार नहीं. दूसरी ओर आप नारद जी को देखिये. उन्होंने सुराज के विषय में युधिष्ठिर से 123 सवाल पूछे. सबसे रोचक बात यह है कि युधिष्ठिर ने क्रम से उत्तर देने की जगह सब का उत्तर एक साथ दिया और यह सिद्ध कर दिया कि राजा ने सुशासन की दृष्टि से प्रत्येक पग नारद जी के आदेश व उपदेश के आधार पर ही उठाया है .
मोटे तौर पर उन सभी प्रश्नों को पांच भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है. पहला भाग धर्म है. नारद जी का सबसे पहला प्रश्न यह था कि “अर्थचिंतन के साथ आप धर्मचिंतन भी करते हैं अथवा नहीं ?” ओ धर्मराज ! यह बताइये कि अर्थचिंतन की व्यापकता के कारण धर्मचिंतन तो प्रभावित नहीं हो रहा ? इसके साथ नारद जी यह भी पूछते हैं कि धर्मचिंतन ज्यादा होने के कारण कहीं राजकोष रिक्त तो नहीं हो रहा ? भोग लालसा के कारण क्या धर्मकार्यों में बाधा पहुँचती है ? या आर्थिक विकास के मार्ग में भी बाधा इस कारण आती है क्या ?
दूसरे विभाग के सब सवाल सामाजिक विकास के मुद्दों पर आधारित हैं. सात विभागों के बारे में वे सवाल उठाते हैं. 1 – कृषि, 2 – वाणिज्य, 3 – सुरक्षा (दुर्गों का आंतरिक प्रबंधन), 4 – पुल का निर्माण, 5 – गाय को चराने के लिये भूमि, 6 – राज्यकर संग्रह व्यवस्था विशेष रूप से खदानों से, 7 – रहने के लिये नई बस्तियों का निर्माण .
वे सब विभागों के प्रति बहुत सजग थे .
उदाहण के तौर पर कृषि के बारे में उन्होंने कहा था –
•राजन मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँ कि क्या आपके राज्य में सभी किसान संतुष्ट व श्रीमंत हैं.
•क्या आपने ईमानदारी से कृषकों के लिए तालाब, सरस बनवाये हैं और उनको भरने का प्रबंधन किया है.
•क्या खेती केवल मानसून पर निर्भर है?
•क्या अगले वर्ष के लिये बीज संग्रह एवं अकाल पड़ा है तो भोजन प्रबंधन ठीक तरह से कर चुके हैं?
•किसानों की मांग के आधार पर धनापूर्ति की व्यवस्था की है अथवा नहीं?
आप ज़रा आज की खेती की हालत देखिये. नारद जी श्रीमंत और संतुष्ट किसानों को देश की सबसे महत्वपूर्ण पूंजी समझते थे, लेकिन उसी भारत में भारी संख्या में किसान अपनी जिन्दगी को बोझ मानकर आत्महत्या कर रहे हैं .
सवालों की तीसरी श्रेणी मंत्रियों एवं अधिकारियों के बारे में है –
•क्या आपने अपने मंत्रमंडल में चरित्रवान, ईमानदार, त्यागी, कर्मकुशल, समाज के प्रति निष्ठा रखने वालों को मंत्री के रूप में शामिल किया है?
•क्या आप अपने प्रत्येक विभाग को चलाने के लिये ईमानदार, निर्लोभी, सेवाभाव से काम करने वाले जानकार व्यक्तियों को अधिकारी के रूप में रखते हैं?
•आपको यह जानना होगा कि एक जानकार व्यक्ति एक हजार बेवकूफों से अधिक अच्छा है.
•प्रत्येक क्षेत्र के स्तर एवं आवश्यकता के अनुसार आप योग्य व्यक्ति को चुनते हैं, अथवा नहीं? (आज की स्थिति क्या है?)
•अपने विभाग में अच्छी तरह कार्य निर्वाह करने वाले मंत्रियों की आप प्रशंसा करते हैं अथवा नहीं.
•क्या वे शुद्ध व्यक्तित्व एवं समृद्ध परम्परा से जुड़े लोग हैं?
•कहीं आप अच्छे, ईमानदार, निपुण, समाज की भलाई के लिये काम करने वाले अधिकारियों को किसी और के दोष के कारण सजा तो नहीं देते?
सामाजिक कल्याण एवं प्रजा की स्थिति के बारे में भी नारद जी ने अनेक सवाल उठाये.
•क्या आप एक परवाह करने वाले पिता व प्यार करने वाली माता की तरह अपने हर नागरिक को देखते हैं?
•मुझे पूरा विश्वास है कि आपकी ईमानदारी एवं निष्पक्षता पर कोई भी नागरिक उंगली नहीं उठाता.
•क्या राज्य में महिलावर्ग सुरक्षित है? वे अक्सर सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेती हैं क्या?
•विकलांग वन्धुओं की सुख सुविधा के लिये क्या व्यवस्था की गई है?
•संत सन्यासियों की देखभाल के लिये श्रद्धा एवं अपनेपन के भाव से क्या विशेष प्रबंधन किया है?
एक ख़ास व विशेष सवाल जो आज भी सुसंगत है, वह ऐसा है कि, “क्या आपको पूरी उम्मीद है कि पूरे सबूतों के साथ पकड़े गए चोरों को आपके अधिकारी धन के लालच में छोड़ते नहीं हैं ?”
विचार कर देखिये कि आज चारों ओर क्या हो रहा है?
आगे चलकर नारद जी ने राजा से उनके दैनिक कार्यकलापों के बारे में भी पूछा. जगने का समय, करणीय कार्यों के बारे में बारीकी से विचार करते हैं क्या, किये हुए कामों की बाद में समीक्षा के बारे में, आप निर्णय अकेले लेते हैं अथवा तज्ञ सहकारियों से विचार-विमर्श के बाद आदि आदि .
•देश की सुरक्षा के लिये प्राण न्यौछावर करने वाले सुरक्षाकर्मियों के परिजनों के साथ आपका व्यवहार कैसा है? क्या आप उन्हें अपने पुत्र-पुत्रियों के समान समझते हैं?
•क्या आप बुजुर्ग, अनुभवी, जानकार व्यक्तियों के सुझाव एवं सूचनाओं को पूरे ध्यान से सुनते हैं?
•क्या अपने दोषों का, जैसे नींद, आलस्य, भय, क्रोध, टालमटोल, प्रतिशोध आदि का त्याग कर दिया है?
सुरक्षा, युद्ध की तैयारी, जासूसी, रणनीति संबंधी सवाल भी पूछे. ये पढ़कर ऐसा लगता है कि ये सब सवाल मात्र राजा की जानकारी अथवा सत्ताधारियों को समझाने के लिये नहीं उठाए गये, इसके साथ-साथ आम जनता को भी अपने अधिकारों के बारे में सजग बनाने के लिये भी थे कि राजसत्ता से क्या-क्या अपेक्षा रख सकते हो ?
अगर देश में वास्तविक अर्थों में सुराज लाना है तो देवर्षि नारद मुनि का उपरोक्त दर्शन एक उज्जवल एवं स्पष्ट मार्गदर्शक होगा. निश्चित रूप से यह भी कह सकते हैं कि उस दर्शन की सहायता से भविष्य में आगे बढ़ने की दिशा मिलती है. एक बात पक्की है कि नारद – युधिष्ठिर संवाद के हर बिंदु पर गहराई से अध्ययन व शोध करने की आवश्यकता है.
नारद मुनि धर्म के प्रचार एवं समाज कल्याण के क्षेत्र में हमेशा बहुत सक्रिय रहे. हमारे ग्रंथों, पुराणों में उन्हें भगवान का मन ऐसा माना जाता है. इसलिये सब वर्गों के बीच में चाहे देव हों अथवा दानव, नारद जी की स्वीकार्यता थी. सब प्रकार के लोग उनके मार्गदर्शन को मानते थे. भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने देवर्षियों के बीच सबसे प्रथम गणनीय स्थान उन्हें दिया है.
महाभारत के सभा पर्व के पांचवें अध्याय में नारद जी को उपनिषद् ज्ञाता कहा गया है. इतिहास पुराणों के ज्ञानी इस नाते नारद जी की देवता लोग भी आराधना करते हैं. इन सभी गुणों के साथ वे एक महान संचारक भी थे. पूरे संसार के सबसे प्रथम संवाददाता या पत्रकार, ऐसा नारद जी का स्थान है. पत्रकारिता में उनकी प्रवीणता और संवाद की निपुणता उनके द्वारा युधिष्ठिर को दिए हुये उपदेशों में स्पष्ट दिखाई देती है. एक अन्य स्थान पर उन्होंने आम जनता की शक्ति किसके ऊपर निर्भर है, यह बताया है. जितने प्रमाण में जनता को सूचनाएयें मिलती हैं, उतने प्रमाण में वह शक्तिसंपन्न होती है. पूरे विश्व में क्या, कैसे, कब हो रहा है, इसकी जानकारी उसको अवश्य मिलना चाहिये. इसलिये एक जिम्मेदार राज्यकर्ता समाज तक सही सूचनायें एवं समाचार पहुंचाने का इन्तजाम  अवश्य करे.
एक अच्छे पत्रकार में जो कुछ गुण चाहिये, वे सब नारद जी में दिखाई देते हैं. सबसे पहले स्थिति को गहराई से समझना. एक पत्रकार में कृत्यता एवं समग्रता चाहिये. सूचना की समीक्षा करने की सामर्थ्य भी चाहिये. इसके साथ सम्बंधित समस्त सूचनायें संकलित करना और उनका अध्ययन करना आवश्यक है. अगला बिंदु है अनुवर्ती घटनाक्रमों के विषय में कल्पना करने की क्षमता (पूर्वानुमान). सबसे महत्वपूर्ण पहलू, प्रस्तुत करने की शैली और ढंग है. इन सभी तथ्यों को मानकर एक पत्रकार को उपयुक्त रीति एवं सटीक शब्दों के साथ अपने कार्य में आगे बढ़ना चाहिये.
आदि पर्व में भगवान व्यास ने नारद जी का समग्र चित्र प्रस्तुत किया है –
अर्थ निर्वचनं नित्यं
संशयच्छिद संशयः
प्रकृत्या धर्मकुशलो
नाना धर्म विशारदः
एक शब्दाश्च नानार्थान
एकार्थश्च पृथगच्छ्रतीन
प्रथगर्थाभिदानश्च
प्रथोगाणा भवेच्छिद
प्रमाण भूतो लोकस्य
सर्वाधिकारणेषु च
सर्व वर्ण विकारेषु
नित्यं सकल पूजितः
उद्देश्यानां समाख्याता
सर्वमाख्यात मुद्दिशन
अभिसंधिषु तत्वज्ञः
पदान्यडगान्यनुस्मरन
काल धर्में निर्दिष्टम
यथार्थं न विचारयन
चिकीर्षितं च यो वेत्ता
यथा लोकेन संवृतं
विभाषितं च समयं
भाषितं हृदयंगमं
आत्मने च परक्ष्मै च
स्वर संस्कार योगवान
एषां स्वराणाम वेत्ता च
बोद्धा च वचन स्वरान
विज्ञाता चोक्त वाक्यानां
एकतां बहुतां तथा
कुल 21 श्लोकों में वेदव्यास जी ने उस विशेष अवसर पर नारद मुनि के गुणों के बारे में बताया था .
स्थितियों को ठीक प्रकार से समझकर, सभी सम्बंधित तथ्यों के दृष्टिगत नारद जी स्पष्ट रूप से संवाद करते थे. धर्म के विभिन्न पहलुओं के बारे में सम्पूर्ण जानकारी एवं प्रयोग में लाने की निपुणता, एक शब्द के अनेक अर्थ और एक अर्थ वाले विभिन्न शब्दों की जानकारी, सही शब्द का सही समय पर प्रयोग, भाषा के ऊपर अधिकार एवं पदावली की सही समझ उनको थी. आज के पत्रकार जगत को नारद जी से प्रेरणा लेनी चाहिये .
संवाद संकलन को पवित्र कार्य मानना चाहिये. रेटिंग बढ़ाने के लिये किसी की भी राय अपनाना अच्छा नहीं है.
एक पत्रकार को किसी भी हालत में, स्वार्थवश अथवा पैसे के लालच में हीन युक्तियों (डर्टी ट्रिक्स) से बचना चाहिये.

मंगलवार, 17 मई 2016

ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा

18 मई 1974 / भारत का पहला परमाणु परीक्षण – ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा

 नई दिल्ली. 18 मई, 1974 को पोखरण में भारत ने पहला परमाणु परीक्षण किया, जिसका कूट था ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा Smiling Buddha. उस समय भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी थीं. इस परीक्षण के साथ भारत छठा परमाणु क्षमता संपन्न देश बन गया था.
भारत के परमाणु शक्ति संपन्न होने की दिशा में काम तो वर्ष 1945 में ही शुरू हो गया था, जब होमी जहांगीर भाभा ने इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की नींव रखी. लेकिन सही मायनों में इस दिशा में भारत की सक्रियता वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद बढ़ी. इस युद्ध में भारत को शर्मनाक तरीके से अपने कई इलाके चीन के हाथों गंवाने पड़े थे. इसके बाद वर्ष 1964 में चीन ने परमाणु परीक्षण कर महाद्वीप में अपनी धौंसपट्टी और तेज कर दी. दुश्मन पड़ोसी की ये हरकतें भारत को चिंतित व विचलित कर देने वाली थीं. लिहाजा सरकार के निर्देश पर भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र ने प्लूटोनियम व अन्य बम उपकरण विकसित करने की दिशा में सोचना शुरू किया.
भारत ने अपने परमाणु कार्यक्रम को तेज किया और वर्ष 1972 में इसमें दक्षता प्राप्त कर ली. वर्ष 1974 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत के पहले परमाणु परीक्षण के लिए हरी झंडी दे दी. इसके लिए स्थान चुना गया राजस्थान के जैसलमेर जिले में स्थित छोटे से शहर पोखरण के निकट का रेगिस्तान और इस अभियान का नाम दिया गया स्माइलिंग बुद्धा. इस नाम को चुने जाने के पीछे यह स्पष्ट दृष्टि थी कि यह कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्य के लिए है.