बुधवार, 18 मई 2016

देवर्षि नारद पत्रकारों के आदर्श प्रेरणास्रोत

नारद शब्द की जो परिभाषा हमारे ऋषियों ने की है, उसके अनुसार –
नारं परमात्म विषयकं ज्ञानं ददाति नारदः
नारं नरसमूहम दयते पालयति
ज्ञान दानेनेति नारदः
ददाति नारं ज्ञानं च बालकेभ्यश्च बालकः
जातिस्मरो महाज्ञानी तेनायं नारदभिदः
अर्थात सर्वोच्च या परमज्ञान देने वाले का नाम है नारद. नारं शब्द का अर्थ दो तरह से प्रस्तुत कर सकते हैं. एक तो सामान्य अर्थ है परमज्ञान, और दूसरा विशेष अर्थ है नर संबंधी ज्ञान. दोनों ही अर्थों से वे परमज्ञान के संरक्षक अर्थात स्वामी हैं. नारद जी के ज्ञान का दायरा कितना विस्तृत था, यह इस प्रसंग से परिलक्षित होता है कि जब वे अपने गुरू जी के पास ज्ञान प्राप्ति के लिये पहुंचे, तब गुरू जी ने उनकी प्रारम्भिक जानकारी के विषय में प्रश्न किया. नारद जी ने विनम्रता से एक लम्बी सूची गुरूजी के सम्मुख रख दी.
रामायण और महाभारत दोनों के इतिहास लेखन में नारद जी की अनूठी भूमिका एवं योगदान का वर्णन मिलता है. प्रथम तो महर्षि वाल्मीकि को रामायण लिखने की प्रेरणा तथा दूसरी धर्मराज युधिष्ठिर को राजनीति समाजनीति की शिक्षा.
एक दिन वाल्मीकि आश्रम में नारद जी पहुँच गये. वाल्मीकि सही में किसी परिपूर्ण मानव की तलाश में थे. ऐसा माना जाता है कि परिपूर्ण मानव अर्थात जिसमें 16 गुण हों. किन्तु नारद जी ने 57 गुण वाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र महाप्रभु की कथा उनके सम्मुख प्रस्तुत की;  जिसे सुनकर वाल्मीकि भाव-विभोर हो गये, अत्यंत प्रभावित हो गये. वाल्मीकि जी ने नारद जी को दंडवत प्रणाम किया और अपने शिष्य भारद्वाज के साथ तमसा नदी के लिये प्रस्थान किया. स्वच्छ शांत और पवित्र वातावरण में वाल्मीकि जब विचारों में लीन थे, तभी एक बहेलिये ने काम क्रीड़ा में रत क्रोंच पक्षी के जोड़े में से एक को तीर चलाकर मार डाला. अपने प्रेमी की मृत्यु को देखकर दूसरे पक्षी ने भी विरह में प्राण त्याग दिये . आनंद की पराकाष्ठा से असहनीय दुःख के पाताल में गिर गये वाल्मीकि. शांत एवं प्रसन्नचित्त वाल्मीकि क्रोध से भर गये . शोकार्त वाल्मीकि के मुख से अपने आप कुछ शब्द निकले. ‘मा निषाद प्रतिष्ठां..’ हे ! निषाद तुमने निर्ममता पूर्वक जो यह क्रूर एवं जघन्य कृत्य किया है, अतः तुम्हारा जीवन शाश्वत नहीं रहेगा, तुम अल्पायु हो जाओगे. उनके मुख से निकला हुआ वह श्लोक ही सृष्टि का पहला काव्य था, ऐसा कहा जाता है . स्वयं वाल्मीकि भी चमत्कृत हो गये. उनको भी समझ नहीं आया कि उनके मुख से यह क्या निकला और क्यों निकला? निषाद तो उसी समय भस्मीभूत हो गया. अतः उन्होंने अपने शिष्य से पूछा कि यह सब क्या है ? उनकी वह जिज्ञासा भी काव्य रूप में ही प्रकट हुई .
पाद्बद्धोSक्षर समस्तंत्री लय समन्वित
शोकार्त्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोको भवतु नान्यतः .
इतनी क्रमबद्ध पंक्तियाँ एवं शब्द, वीणा की तंत्री में से निकलने वाली स्वरलहरी के समान लयबद्ध होकर कैसे निकले ? क्या शोक से भरे मन से निकलने वाले शब्दों का सार ही श्लोक कहलाता है ?
संध्यावंदन कर भारी मन से वे आश्रम वापस लौटे . वहां उनके सम्मुख स्वयं ब्रह्मदेव प्रकट हुये. ब्रह्मदेव ने उन्हें आदेश दिया कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जो कथा नारद जी ने उन्हें सुनाई थी, उसे इतिहास के रूप में लिखो. लिखने की शैली वही हो,जो “मा निषाद……” में इस्तेमाल की गई थी. वाल्मीकि ने ब्रह्मा जी के आदेशानुसार नारद जी द्वारा दी गई विषय वस्तु पर रामायण की रचना की.
उस पूरे इतिहास में नारद जी कई बार प्रकट होते रहते हैं. जब जब कहानी के प्रवाह में गंभीर मोड़ आते हैं, उस समय धर्म की परिभाषा बताने एवं मार्गदर्शन करने नारद जी उपस्थित होते हैं. वे पात्रों के मन को इधर-उधर भटकने नहीं देते. सभी पुराणों में नारद जी की भूमिका ऐसी ही रहती है. धर्म की व्याख्या करने की असाधारण योग्यता और सटीक ढंग से प्रस्तुत करने की अनुपम शैली, यही थी नारद जी की सबसे बड़ी विशेषता.
इसी प्रकार महाभारत देखिये. ऐसा माना जाता है कि धर्मराज के साथ उनका संवाद एक प्रकार से सुराज की कार्यपद्धति का आश्चर्यजनक उदाहरण है. और यह है भी सच कि वह सोद्देश्य संवाद विश्व के सब सत्ताधारियों के लये एक सार्वकालिक गीता है.
महाराजा युधिष्ठिर की अद्वितीय राजसभा में देवर्षि नारद मुनि ने प्रवेश किया. अतिथि सत्कार और सम्मान सब होने के बाद नारद जी ने पहले पुरुषार्थ के विषय में उपदेश दिया. धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का प्राधान्य, उन्हें पाने की विधि एवं प्रयोग की जानकारी विस्तृत ढंग से मुनि ने राजा सहित सबको सिखाई. ज्ञानोपदेश का यह तरीका एक प्रकार की प्रश्नोत्तरी के रूप में था. अंग्रेजी में इसको catechism कहते हैं, अर्थात पूर्व निर्धारित सवालों का उत्तर देने की शैली. एक राज्यकर्ता के दायित्वों की सम्पूर्ण सूची है यह प्रश्नोत्तरी. नारद जी ने धर्म संहिता, क़ानून संहिता एवं राज्य की जिम्मेदारियों से सम्बंधित जो 123 सवाल उस समय उठाये, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं. एक प्रकार से ज्यादा प्रासंगिक हैं ऐसा कहा जा सकता है.
हम सबको गांधीजी की रामराज्य की कल्पना के विषय में मालूम है. उस कल्पना के मूर्तरूप धर्मपुत्र के सम्मुख नारद जी द्वारा रखे गए विस्तृत दर्शन. राज्य दर्शन, राज, राज्य, सत्तानीति, दायित्व एवं जिम्मेदारियां, सावधानियां सब इस दर्शन में समाहित है. उन्होंने बताया कि दायित्व के दो पहलू हैं. एक शुचिता संबंधी और दूसरा वैधानिक. नारद जी के वे उपदेश मात्र भौतिक प्रगति या सर्वसाधारण जीवन की मामूली बातों को नियमन करने वाला सूत्र नहीं हैं, बल्कि यह कहा जा सकता है कि तदनुसार जीवन बिताने वाला व्यक्ति आध्यात्मिकता के शीर्ष शिखर पर पहुंचेगा.
सुराज न केवल वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बल्कि सार्वकालिक सुसंगत व प्रासंगिक भी है. आज की वास्तविकता यह है कि तथाकथित लोकतांत्रिक सत्ता से जुड़ी हुई संस्था कहो या व्यवस्था कहो, सब आम जनता की पहुँच से परे है. दूसरी ओर ढोल पीटा जाता है कि सब कुछ आमजनता के लिये है. सत्यता, निष्ठा एवं मूल्यों का कार्यप्रणाली में कोई स्थान नहीं है. सभी स्वार्थ और कुटिलता के सहारे राज्य करते हैं. हमारी समस्याओं के लिये विदेशियों को दोषी ठहराने से कोई लाभ नहीं .
आज की स्थिति क्या है ? अंग्रेजों ने अपनी सत्ता अबाधित चलाने के लिये जो व्यवस्था, ढांचा एवं कार्य प्रणाली बनाई, उसको स्वतंत्र भारत में भी बेशर्मी से ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है. स्वतंत्र का सही मतलब समझने में हम पूरी तरह नाकाम रहे हैं. स्व – तंत्र माने मात्र आजादी नहीं “स्व” के आधार पर तंत्र चला सकें, उस स्थिति को ही स्वतंत्र कह सकते हैं. अन्यों के तंत्र के आधार पर चलने वाली सत्ता तो वस्तुत: परतंत्रता है. आज की स्थिति में तो हम स्वतंत्र नहीं हैं. प्रत्येक विभाग में विदेशी तत्वों द्वारा निर्मित क़ानूनों, सिद्धांतों एवं नीतियों के आधार पर ही काम हो रहा है. वे उसी प्रकार विद्यमान हैं, मानो आज भी विदेशी ताकतों के हाथ में कमान हो. पदों के नाम बदलने तक की हिम्मत सत्ताधारियों ने अभी तक नहीं दिखाई है. उदाहरणार्थ एक जिले का सर्वोच्च लोक सेवक कौन है ? हमने आईसीएस को आईएस बनाया है, लेकिन कलेक्टर का नाम नहीं बदला. क्या मतलब है कलेक्टर शब्द का ? कलेक्टर गज वन हू कलेक्ट्स- जो संग्रह करे वह कलेक्टर. क्या कलेक्ट करने वाला? अंग्रेजों के जमाने में उन्होंने अपने भरोसेमंद चुने हुए लोगों को प्रत्येक जिले में अपने लिये राजस्व संग्रह के लिये कलेक्टर नियुक्त किये. मतलब अंग्रेजों ने उन्हें सबसे ज्यादा पैसा आम जनता से इकट्ठा करने के लिये नौकरी दी. कमिश्नर की भी यही स्थिति है .
अभी देखिये, सब क्षेत्रों में चाहे शिक्षा हो या उद्योग, इतिहास हो या अर्थशास्त्र, सब मोर्चों पर विदेशी नीतियाँ ही चलती हैं. अपने नेतागण भारत का अपना मौलिक ढांचा खड़ा करने के लिये तैयार नहीं. अपने इतिहास एवं परम्पराओं से प्रेरणा पाकर अग्रसर होने को तैयार नहीं. दूसरी ओर आप नारद जी को देखिये. उन्होंने सुराज के विषय में युधिष्ठिर से 123 सवाल पूछे. सबसे रोचक बात यह है कि युधिष्ठिर ने क्रम से उत्तर देने की जगह सब का उत्तर एक साथ दिया और यह सिद्ध कर दिया कि राजा ने सुशासन की दृष्टि से प्रत्येक पग नारद जी के आदेश व उपदेश के आधार पर ही उठाया है .
मोटे तौर पर उन सभी प्रश्नों को पांच भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है. पहला भाग धर्म है. नारद जी का सबसे पहला प्रश्न यह था कि “अर्थचिंतन के साथ आप धर्मचिंतन भी करते हैं अथवा नहीं ?” ओ धर्मराज ! यह बताइये कि अर्थचिंतन की व्यापकता के कारण धर्मचिंतन तो प्रभावित नहीं हो रहा ? इसके साथ नारद जी यह भी पूछते हैं कि धर्मचिंतन ज्यादा होने के कारण कहीं राजकोष रिक्त तो नहीं हो रहा ? भोग लालसा के कारण क्या धर्मकार्यों में बाधा पहुँचती है ? या आर्थिक विकास के मार्ग में भी बाधा इस कारण आती है क्या ?
दूसरे विभाग के सब सवाल सामाजिक विकास के मुद्दों पर आधारित हैं. सात विभागों के बारे में वे सवाल उठाते हैं. 1 – कृषि, 2 – वाणिज्य, 3 – सुरक्षा (दुर्गों का आंतरिक प्रबंधन), 4 – पुल का निर्माण, 5 – गाय को चराने के लिये भूमि, 6 – राज्यकर संग्रह व्यवस्था विशेष रूप से खदानों से, 7 – रहने के लिये नई बस्तियों का निर्माण .
वे सब विभागों के प्रति बहुत सजग थे .
उदाहण के तौर पर कृषि के बारे में उन्होंने कहा था –
•राजन मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँ कि क्या आपके राज्य में सभी किसान संतुष्ट व श्रीमंत हैं.
•क्या आपने ईमानदारी से कृषकों के लिए तालाब, सरस बनवाये हैं और उनको भरने का प्रबंधन किया है.
•क्या खेती केवल मानसून पर निर्भर है?
•क्या अगले वर्ष के लिये बीज संग्रह एवं अकाल पड़ा है तो भोजन प्रबंधन ठीक तरह से कर चुके हैं?
•किसानों की मांग के आधार पर धनापूर्ति की व्यवस्था की है अथवा नहीं?
आप ज़रा आज की खेती की हालत देखिये. नारद जी श्रीमंत और संतुष्ट किसानों को देश की सबसे महत्वपूर्ण पूंजी समझते थे, लेकिन उसी भारत में भारी संख्या में किसान अपनी जिन्दगी को बोझ मानकर आत्महत्या कर रहे हैं .
सवालों की तीसरी श्रेणी मंत्रियों एवं अधिकारियों के बारे में है –
•क्या आपने अपने मंत्रमंडल में चरित्रवान, ईमानदार, त्यागी, कर्मकुशल, समाज के प्रति निष्ठा रखने वालों को मंत्री के रूप में शामिल किया है?
•क्या आप अपने प्रत्येक विभाग को चलाने के लिये ईमानदार, निर्लोभी, सेवाभाव से काम करने वाले जानकार व्यक्तियों को अधिकारी के रूप में रखते हैं?
•आपको यह जानना होगा कि एक जानकार व्यक्ति एक हजार बेवकूफों से अधिक अच्छा है.
•प्रत्येक क्षेत्र के स्तर एवं आवश्यकता के अनुसार आप योग्य व्यक्ति को चुनते हैं, अथवा नहीं? (आज की स्थिति क्या है?)
•अपने विभाग में अच्छी तरह कार्य निर्वाह करने वाले मंत्रियों की आप प्रशंसा करते हैं अथवा नहीं.
•क्या वे शुद्ध व्यक्तित्व एवं समृद्ध परम्परा से जुड़े लोग हैं?
•कहीं आप अच्छे, ईमानदार, निपुण, समाज की भलाई के लिये काम करने वाले अधिकारियों को किसी और के दोष के कारण सजा तो नहीं देते?
सामाजिक कल्याण एवं प्रजा की स्थिति के बारे में भी नारद जी ने अनेक सवाल उठाये.
•क्या आप एक परवाह करने वाले पिता व प्यार करने वाली माता की तरह अपने हर नागरिक को देखते हैं?
•मुझे पूरा विश्वास है कि आपकी ईमानदारी एवं निष्पक्षता पर कोई भी नागरिक उंगली नहीं उठाता.
•क्या राज्य में महिलावर्ग सुरक्षित है? वे अक्सर सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेती हैं क्या?
•विकलांग वन्धुओं की सुख सुविधा के लिये क्या व्यवस्था की गई है?
•संत सन्यासियों की देखभाल के लिये श्रद्धा एवं अपनेपन के भाव से क्या विशेष प्रबंधन किया है?
एक ख़ास व विशेष सवाल जो आज भी सुसंगत है, वह ऐसा है कि, “क्या आपको पूरी उम्मीद है कि पूरे सबूतों के साथ पकड़े गए चोरों को आपके अधिकारी धन के लालच में छोड़ते नहीं हैं ?”
विचार कर देखिये कि आज चारों ओर क्या हो रहा है?
आगे चलकर नारद जी ने राजा से उनके दैनिक कार्यकलापों के बारे में भी पूछा. जगने का समय, करणीय कार्यों के बारे में बारीकी से विचार करते हैं क्या, किये हुए कामों की बाद में समीक्षा के बारे में, आप निर्णय अकेले लेते हैं अथवा तज्ञ सहकारियों से विचार-विमर्श के बाद आदि आदि .
•देश की सुरक्षा के लिये प्राण न्यौछावर करने वाले सुरक्षाकर्मियों के परिजनों के साथ आपका व्यवहार कैसा है? क्या आप उन्हें अपने पुत्र-पुत्रियों के समान समझते हैं?
•क्या आप बुजुर्ग, अनुभवी, जानकार व्यक्तियों के सुझाव एवं सूचनाओं को पूरे ध्यान से सुनते हैं?
•क्या अपने दोषों का, जैसे नींद, आलस्य, भय, क्रोध, टालमटोल, प्रतिशोध आदि का त्याग कर दिया है?
सुरक्षा, युद्ध की तैयारी, जासूसी, रणनीति संबंधी सवाल भी पूछे. ये पढ़कर ऐसा लगता है कि ये सब सवाल मात्र राजा की जानकारी अथवा सत्ताधारियों को समझाने के लिये नहीं उठाए गये, इसके साथ-साथ आम जनता को भी अपने अधिकारों के बारे में सजग बनाने के लिये भी थे कि राजसत्ता से क्या-क्या अपेक्षा रख सकते हो ?
अगर देश में वास्तविक अर्थों में सुराज लाना है तो देवर्षि नारद मुनि का उपरोक्त दर्शन एक उज्जवल एवं स्पष्ट मार्गदर्शक होगा. निश्चित रूप से यह भी कह सकते हैं कि उस दर्शन की सहायता से भविष्य में आगे बढ़ने की दिशा मिलती है. एक बात पक्की है कि नारद – युधिष्ठिर संवाद के हर बिंदु पर गहराई से अध्ययन व शोध करने की आवश्यकता है.
नारद मुनि धर्म के प्रचार एवं समाज कल्याण के क्षेत्र में हमेशा बहुत सक्रिय रहे. हमारे ग्रंथों, पुराणों में उन्हें भगवान का मन ऐसा माना जाता है. इसलिये सब वर्गों के बीच में चाहे देव हों अथवा दानव, नारद जी की स्वीकार्यता थी. सब प्रकार के लोग उनके मार्गदर्शन को मानते थे. भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने देवर्षियों के बीच सबसे प्रथम गणनीय स्थान उन्हें दिया है.
महाभारत के सभा पर्व के पांचवें अध्याय में नारद जी को उपनिषद् ज्ञाता कहा गया है. इतिहास पुराणों के ज्ञानी इस नाते नारद जी की देवता लोग भी आराधना करते हैं. इन सभी गुणों के साथ वे एक महान संचारक भी थे. पूरे संसार के सबसे प्रथम संवाददाता या पत्रकार, ऐसा नारद जी का स्थान है. पत्रकारिता में उनकी प्रवीणता और संवाद की निपुणता उनके द्वारा युधिष्ठिर को दिए हुये उपदेशों में स्पष्ट दिखाई देती है. एक अन्य स्थान पर उन्होंने आम जनता की शक्ति किसके ऊपर निर्भर है, यह बताया है. जितने प्रमाण में जनता को सूचनाएयें मिलती हैं, उतने प्रमाण में वह शक्तिसंपन्न होती है. पूरे विश्व में क्या, कैसे, कब हो रहा है, इसकी जानकारी उसको अवश्य मिलना चाहिये. इसलिये एक जिम्मेदार राज्यकर्ता समाज तक सही सूचनायें एवं समाचार पहुंचाने का इन्तजाम  अवश्य करे.
एक अच्छे पत्रकार में जो कुछ गुण चाहिये, वे सब नारद जी में दिखाई देते हैं. सबसे पहले स्थिति को गहराई से समझना. एक पत्रकार में कृत्यता एवं समग्रता चाहिये. सूचना की समीक्षा करने की सामर्थ्य भी चाहिये. इसके साथ सम्बंधित समस्त सूचनायें संकलित करना और उनका अध्ययन करना आवश्यक है. अगला बिंदु है अनुवर्ती घटनाक्रमों के विषय में कल्पना करने की क्षमता (पूर्वानुमान). सबसे महत्वपूर्ण पहलू, प्रस्तुत करने की शैली और ढंग है. इन सभी तथ्यों को मानकर एक पत्रकार को उपयुक्त रीति एवं सटीक शब्दों के साथ अपने कार्य में आगे बढ़ना चाहिये.
आदि पर्व में भगवान व्यास ने नारद जी का समग्र चित्र प्रस्तुत किया है –
अर्थ निर्वचनं नित्यं
संशयच्छिद संशयः
प्रकृत्या धर्मकुशलो
नाना धर्म विशारदः
एक शब्दाश्च नानार्थान
एकार्थश्च पृथगच्छ्रतीन
प्रथगर्थाभिदानश्च
प्रथोगाणा भवेच्छिद
प्रमाण भूतो लोकस्य
सर्वाधिकारणेषु च
सर्व वर्ण विकारेषु
नित्यं सकल पूजितः
उद्देश्यानां समाख्याता
सर्वमाख्यात मुद्दिशन
अभिसंधिषु तत्वज्ञः
पदान्यडगान्यनुस्मरन
काल धर्में निर्दिष्टम
यथार्थं न विचारयन
चिकीर्षितं च यो वेत्ता
यथा लोकेन संवृतं
विभाषितं च समयं
भाषितं हृदयंगमं
आत्मने च परक्ष्मै च
स्वर संस्कार योगवान
एषां स्वराणाम वेत्ता च
बोद्धा च वचन स्वरान
विज्ञाता चोक्त वाक्यानां
एकतां बहुतां तथा
कुल 21 श्लोकों में वेदव्यास जी ने उस विशेष अवसर पर नारद मुनि के गुणों के बारे में बताया था .
स्थितियों को ठीक प्रकार से समझकर, सभी सम्बंधित तथ्यों के दृष्टिगत नारद जी स्पष्ट रूप से संवाद करते थे. धर्म के विभिन्न पहलुओं के बारे में सम्पूर्ण जानकारी एवं प्रयोग में लाने की निपुणता, एक शब्द के अनेक अर्थ और एक अर्थ वाले विभिन्न शब्दों की जानकारी, सही शब्द का सही समय पर प्रयोग, भाषा के ऊपर अधिकार एवं पदावली की सही समझ उनको थी. आज के पत्रकार जगत को नारद जी से प्रेरणा लेनी चाहिये .
संवाद संकलन को पवित्र कार्य मानना चाहिये. रेटिंग बढ़ाने के लिये किसी की भी राय अपनाना अच्छा नहीं है.
एक पत्रकार को किसी भी हालत में, स्वार्थवश अथवा पैसे के लालच में हीन युक्तियों (डर्टी ट्रिक्स) से बचना चाहिये.

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